Saturday, July 26, 2008

कोलता जाति:

में
शोध- डॉ. निर्मल साहू-पुष्पा साहू

कोलता जाति के इतिहास के लिए हमें आर्य सभ्यता से गुजरनाा होगा, अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि यह जाति आर्य, या द्रविड सभ्यता से है। अभी तक इसका मिला जुला स्वरुप ही उभरकर सामने आया है। किंतु अनेकत: मिथकों, प्रसगों से यह सामने आया है कि यह जाति आर्य सभ्यता का अंग था। वर्तमान में यह जाति पश्चिम और मध्य उडीसा तथा छत्तीसगढ में केंद्रित है। इनका आचार -व्यवहार, स्वभाव, परंपरा एवं सस्ंकृ ति बिहार, नेपाल, पूर्वी उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ, ग़ुजरात के कुछ इलाकों, महाराष्ट्र के तटीय इलाकों के निवासियों से मिलती जुलती है। आर्य का अर्थ सुस्कृंृत मानव है। अंगरेजी में से संज्ञायित किया गया है। विश्व इतिहास की अन्य सभ्यताओं यथा, ग्रीक, जर्मनी, पारसी आदि की तुलना में इसे श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। भारतीय स्वयं को आर्य कहकर गौरवान्वित महसूस करते हैं। आर्यों का प्रवेश भारत में अफगानिस्तान से पाकिस्तान होकर आया, वे सिंधु नदी पारकर यहां आए थे जिसके कारण इन्हें कालांतर में हिंदू नाम से पुकारा गया। ये पाकिस्तान के पश्चिम प्रदेश और पंजाब के क्षेत्रों में बसकर इस इलाके को ब्रह्मा से नामित किया। ईसा पूर्व 2500 से 1500 तक आर्य और द्रविड सभ्यताओं में संघर्ष हुआ । द्रविड दक्षिण की ओर जाने लगे, जबकि आर्यों ने गंगा, यमुना के इलाकों में अपना विस्तार शुरू किया इस क्षेत्र को आर्यावत का नाम दिया गया। शोधकों के अनुसार इस काल में रामायण और महाभारत की रचना हुई। इसी काल में आर्य और द्रविडाें का सांस्कृ तिक और सामाजिक मिलन हुआ, वैवाहिक संबंध स्थापित हुए। अनेक समुदायों में विवाह के कारण जाति और उपजाति का आविर्भाव हुआ। इसी काल में ऋग्ग्वेद की रचना हुई ,उपनिषद का आविर्भाव हुआ। इसी कारण इस युग को वैदिक काल भी कहा जाता है। इस काल में चार वर्ण क्षत्रिय,ब्राह्मण , वैश्य और शुद्र की उत्पत्ति हुई। इस समय एक वर्ण का अन्न्य वर्म से वैवाहिक संबंध मान्य था। इसके उपरांत ही संस्कार नाम से जाति प्रथा का प्रचलन प्रारंभ हुआ।
गंगा और यमुना के उपकुलों में निवासरत आर्यर्ों के जीवन यापन का मुख्य साधन कृषि कर्म ही था। पशुपालन और अन्य उत्पादन ही इसकी आजिविका के साधन थे। रामायण काल में मिथिला का साम्राज्य पूर्वी उप्र, बिहार, नेपाल का दक्षिण इलाका और गण्डक क्षेत्र को साफ करके मिथिला राजा जनक ने कृषि योग्य बनाया था। इतिहास विदों के अनुसार वर्तमान मधुबनी, दरभंगा, चंपारण, मोतिहारी और नेपाल की तराई का इलाका भी जनक के साम्राज्य में शामिल था। नेपाल का जनकपुर राजा जनकपुर राजा जनक की राजधानी थी, जबकि उप्र के पश्चिम कौशल राज्य था।
सीता और राम केविवाह के बाद मिथिला और कौशल में सांस्कृतिक और सामाजिक संपर्र्क ज्यादा बढ ग़या। राजा जनक शिव के उपासक थे। सीता विवाह के उपरांत भगवान राम ने शिव और पार्वती आराधना प्रारंभं की। आज भी मधुबनी जिले के झनझारपुर के पास स्थित एक मंदिर में स्थापित शिव पार्वती को रणेश्वर रामचंडी नाम से पूजित किया जाता है।
वैदिक युग में ही ऋषि, मुनियों, शासकों में शक्ति सम्पन्नता का भाव उभरने लगा। ब्राह्मण वर्ण प्रथा कठोर होने लगी, समुदाय विखंडित होने लागा। ब्राह्मणों की कुनीतियों के विरूध्द क्षत्रियों ने संघर्ष किया। इसके उपरांत महावीर और गौतम बुध्द ने अपने धर्ण का प्रत्रचार प्रसार किया। गौतम बुध्द के समय तक मिथिला नरेश के वंशधर और क्षत्रिय गंगा के किनारे, असम और उत्तरपूर्व ब्रह्मपुत्र के मैदानों तक विस्तार कर चुके थे। मध्य बिहार में जनसंख्या के दबाव से कृषि क्षेत्रों में अबाव प्रारंभ हो गया। क्षत्रियों का एक समुदाय उडीसा की अग्रसर हो गया। ब्राह्मणी नदी पारकर ये वर्तमान सुंदरगढ, अनगुल, ढेंकानाल, कटक, पुरी क्षेत्र में जाकर बस गए। जिन्होंने नदी किनारे रहकर खेती करना शुरू किया। उन्हें कुलता चसा और जिन्होंने नही से दूर रहकर खेती प्रारंभ किाय उन्हें साधारण चसा के नाम से पुकारा जाने लगा। संभवत: इस प्रकार से कुलता और चसा दो अलग जातियां अस्तित्व में आ गईं। कलिंग आक्र्रमण के समय मगध के जो सैनिक यहां बसकर कृषि कार्य करने लगे खंडायत के नाम से जाने गए। अशोक के शासनकाल में इन पर बौध्द तथा ब्राह्मणों का प्रभाव ज्यादा पडना स्वाभाविक था फलत: खंडायत की सामाजिक, सांस्कृतिक परंपराएं कोलता और चसा की तुलना में भिन्न रहीं। उडीसा के साथ दक्षिण भारतीय का सांस्कृतिक सामाजिक संबंध पडा जबकि कोलता और चसा की बोली के साथ मैथिली और मगही का सामंजस्य अधिक दिखाई देता है। कृषि भूमि के अभाव से यहां कोलता जाति ने बौउद, बलांगीर, कालाहांडी, सुंदरगढ अौर छत्तीसगढ में विस्तार किया। मैथिली और मगही के साथ उस स्थान के आदिवासियों और संप्रदाय की बोली के मिश्रण से बोली का जो नया स्वरुप उभरा उसे वर्तमान में संबलपुरी कहा जाता है।
जाति का मूल स्वरुप:
यह जाति मूलरुप से चंद्रद्रवंशी क्षत्रिय जनक के वंशधर हैं। मिथिला से दक्षिण बिहार होकर उडीसा में आकर कोलता, चसा और खंडायत नाम से पुकारे जाने लगे। धीरे-धीरे इनमें संपर्र्क घटा। आजीविका के अभाव ने इन्हें अन्य क्षेत्रों की ओर पालयन के लिए मजबूर किया जिससे इनमें भिन्नता मिलने लगी हालाकि संपर्र्क न होते हुए भी इनके पूजा पाठ, विवाह , परंपरा सामजिक रीतियां समान हैं। इनमें मध्य बिहार के क्षत्रियों और मैथिली परंपरा का स्पष्ट प्रभाव है।
बौध्द और शैव संप्रदाय का प्रभाव
अनुमान लगाया जाताहै कि 250 ईसवी से एक हजार के मध्य पश्चिम उडीसा में स्थापित कई मंदिर उत्तर भारत से आए क्षत्रिय समाज द्वारा निर्मित है। बौध्द धर्म का प्रचार बउद, गाइसलेट (गनियापाली) व पश्चिम उडीसा तथा पूर्वी छत्तीसगढ ऌलाके में होने के प्रमाण मिलते हैं। आज भी इस जाति पर बौध्द धर्म के अवशेष किंचित रूप से विद्यमान हैं। यथा: इस जाति के लोग ब्राह्मण या अन्य हिंदू जैसे कट्टर नहीं हैं। महिलाओं के पहनावे में भगवा वस्त्र का चलन अब भी है। विवाह संस्कार में पहले ब्राह्मण द्वारा संपादित नहीं होते थे यह परंपरा कुछ ही वर्षर्ों से प्रारंभ हुई है।
कोलता और गुप्तवंश
चौथी शताब्दी में गंगेय उपत्यका (गंगा क्षेत्र) में नूतन राजवंश का उत्थान हुआ। इस वंश के संस्थापक राजाओं में चंद्र्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त विक्र्रमादित्य थे। अनुमान के अनुसार गुप्त वंश मूलत: राजा जनक के वंशधर थे। चंद्रद्रगुप्त द्वितीय के समय चीनी यात्री फाह्यान ने भारत भ्रमण किया। संभव है कि फाह्यान के साथ भ्रमण पर निकले गुप्त वंश के कुछ क्षत्रिय उडीसा भ्रमण के दौरान कुछ इलाकों में अपना समानांतर राज्य स्थापित किए हों और उनकेवंश कुलता, चसा और खंडायत जाति से प्रतिष्ठित हुए हों। यह ध्यान देने योग्य है कि गुप्त वंश में विष्णु और शिव दोनों की उपासना की जाती थी। शिव दुर्गा की मुद्रा में रणेश्वर रामचंडी कार्तिकेय की प्रतिमाएं आज भी मंदिरों में दिखाई देती हैं।
चौहान काल से संबंध
मरहट्टा और चौहान वंशीय राजाओं के आगमन के बाद पश्चिम उडीसा में काफी परिवर्तन आया। इन राजाओं के आगमन के बाद वहां का क्षत्रिय वर्ग इनकेअधीन होकर सैनिक धर्म निर्वहन के बजाय कृषि कर्म की ओर उन्मुख हुआ। राजा को कर देकर प्रजा के साथ रहना पसंद किया। अधिक से अधिक इन्होंने गांव का प्रमुख होना स्वीकार किया। संभवत: यही क्षत्रिय वर्ग वर्तमान कोलता जाति का मूल उद्गम है। प्रधान जैसे आदरसूचक संबोधन बाद में जातिसूचक बन गया हो।
कोलता की उत्पत्ति
ऐतिहासिक विश्लेषण
कोलता शब्द की उत्पत्ति पर विभिन्न मान्यताएं सामनेर् आईं हैं। कुछ तथ्यगत प्रमुख रूप से सामने आता उनमें यह है कि- कुलु उपत्यका से आकर स्थापित होने से इनका नाम कुलता पडा। दूसरा-आठ मल्लिक इलाकों से महानदी के किनारे (कुल) से बउद इलाके में आकर बसने के कारण कुलता नामकरण, तीसरा- नदी के किनारे रहने के कारण, इनके प्रकृति प्रेम के कारण इन्हें कुलता कहा जाता था। बउद क्षेत्रमें जाकर रहने से इनका नामकरण कुलता के रूप में स्थापित हो गया। चौथा- वैदिक काल में परिवार को कुल तथा उसके मुखिया को कुलपा कहा जाता था। बौध्द परिवार में कुलपा का निर्णय अंतिम होता था। उसका फैसला मानने के लिए परिवार के सभी सदस्य बाध्य थे। आदेश का उल्लंघन करने वाले को कठोर सजा दी जाती थी। उत्तरोत्तर जाति प्रथा के विकास के साथ विभिन्न जाति का कुछ प्रभावशाली कुलपा ने अलग समुदाय बनाया संभवत: यही कुलपा अपभ्रंश होकर कुलता हो गया होगा जिसका वर्तमान स्वरूप कोलता-कुइलता रूप में उभरा हो।
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कृषि भूमि के अभाव से यहां कोलता जाति ने बौउद, बलांगीर, कालाहांडी, सुंदरगढ अौर छत्तीसगढ में विस्तार किया। मैथिली और मगही के साथ उस स्थान के आदिवासियों और संप्रदाय की बोली के मिश्रण से बोली का जो नया स्वरुप उभरा उसे वर्तमान में संबलपुरी कहा जाता है
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उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्य
कृषि व्यवसाय में संलग्न कोलता जाति का उड़ीसा और पूर्वी छत्तीसगढ में आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्टभूमि में महत्वपूर्ण स्थान है। उडीसा में अन्य जाति चसा, खंडायत, सूद और डूमाल के जीविकोपार्जन का भी मुख्य आधार कृषि है। अब तक यह मान्य और ऐतिहासिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि ये जातियां उत्तर बिहार के मैथिल प्रांत, नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र और उत्तरप्रदेश से उडीसा में आए। कुछ शोधार्थियों का मत है कि कोलता और खंडायत उड़ीसा में अशोक के शाससनकाल में आए और बाद में यहां विभिन्न प्राताें में स्थापित हो गए। दूसरी और 8 वीं शताब्दी में इन्हाेंने विभिन्न अंचलाें में शिव मंदिर का निर्माण कराया था। दक्षिण भारत से मराठों के आगमन केबाद इनकी सत्ता खोने लगी ओर ये कृषि व्यवसाय की ओर मुड़ गए। हालांकि इस संधध में प्रमाणिक रूप से कोई साक्ष्य नहीं है। ब्रिटिश शासन के पूर्व इस सम्प्रदाय-जाति के बारे में कोई दस्तावेज नहीं मिलता। ब्रिटिश साम्राजय के दौरान अंग्रेज इतिहासकाराें, अफसरों, कलेक्टरों ने जरूर लिखा। इन लेखाें से हमें कोलता जाति पर समग्र रूप से देखने को कुछ नहीं मिलता, फिर भी शोधार्थियों, जिज्ञासुआें के लिए यह लेख एक तथ्य का मार्गदर्र्शन करते हैं। इनमें कुछ राजपत्र प्रमुख हैंै जो शोधार्थियाें, जिज्ञासु पाठकाें के लिए लाभभप्रद व रूचिकर हो सकते हैंै।
राजपत्र जिला सब डिवीजन
बोनाई सब डिवीजन में कोलता समुदाय एक प्रतिस्थापित और प्रमुख कृषक वर्ग है। इनकी गणना भू स्वामित्व रूप से समृध्द और प्रमुख रूप से होती है। ये 13 वीं शताब्दी के रामानंद संप्रदाय और वैष्णव संप्रदाय के अनुयायी हैं। ये राधाकृष्ण की पूजा करते हैं। मूलत: ये मिथिला से संबलपुर आए और बाद में यहां आकर बस गए। इस जाति के संबंध में कोलोनेल डाल्टन ने अपनी किताब में लिखा है- ये संबलपुर और बोनाई में कृषि रूप से समृध्दशाली और प्रमुख रूप से स्थापित हैं? ये सर्वोत्तम कृषक के रूप में पाए जाते हैं। मैंने पाया कि इनके खेत उवर्रामय, साफसुथरे और घर आरामदायक मिले। मैं स्पष्ट रूप उनके घरों में जाकर यह सब पाया, उनकी महिलाओं व बच्चों से मिला। वे मेरे टेंट में आए और मेरे पास बैठे भी। महिलाएं पर्दा प्रदा से पूर्णतया अनजान थीं। इसमें कोई शक नहीं कि ये आर्यर्ों के उत्कृष्ट अंश हैं। जहां तक मैं सरसरी तौर पर सोचता हूं यह निश्चित पाता हूं। आदिवासी जातियां अधिमिश्रित व चारूपूर्ण होती हैं। इनके रंग काफी से लेकर पीतवर्ण के होते हैं। चेहरा अपेक्षाकृत बडा और सुंदर, आंखें सामान्यत: बडी, साफ नाक नक्शा। मैंने विशेष रूप से यह निरीक्षण किया कि कई संदर साफ शरीरों वालों की भौंहें सुंदर थी,पलक लंबे-लंबे थे। उनके नाम टेडे मेडे नहीं थे, किंतु उसमें परिभाषा योग्य कोई वैशिष्टय नहीं था। उनका माथा सीधा, सरल और हृदय मंदिर की तरह सहज था। वे सामान्यत: औसत हिंदू हैं। ये अपनी पुत्री का विवाह बालिग होने पर ही करते हैं।
ढेंकानाल राजपत्र
जिला राजपत्र 1908 में ओ मेले ने लिखा है: ढेंकानाल चसा बाहुल्य है। 1908 में इनकी संख्या अंगुल सबडिविजन में 40 हजार थी। कोल्डेन रामसे ने फ्यूडकटोरी स्स्टेट इन ओडिसा, 1908-इनकी जनसंख्या अथमलिक में 8 हजार, ढेंकानाल में 51 हजार 116, हिंडाले में 11 हजार,पाल लहरा में 5 हजार और तालचेर में 17 हजार थी। ये विभिन्न भागों में कई वर्गर्ों और नामों से जाने जाते थे। जैसे: पंदसरिया,कुलता, ओडा। खंडायत विवाह के समय जनेउ धारण करते थे और इन वर्गर्ों में स्वयं को श्रेष्ठ मानते थे तथा अन्य वर्गर्ों में जनेउ धारण नहीं किया जाता था। ये एकवर्ग गोत्र में विवाह नहीं करते लेकिन मां के परिवार से इनका विवाह होता है। अविवाहित को दफन किया जाता है जबकि विवाहित का अग्नि संस्कार होता है।
बौउद-खंडामाल राजपत्र
कोलता जाति अयोध्या से आकर यहां बस गई है। बौउद के राजा को पटना के राजा से अपनी बेटी के दहेज स्वरूप डूमाल का एक परिवार और कोलता का चार परिवार भेंट किया था। ये चार परिवार थे- प्रधान, साहू, नायक और बिस्वाल। इसके अतिरिक्त भोई भी इस जाति में पाए जाते हैं। इनके जीविकोपार्जन का मुख्य साधन खेती है। इनमें से कई काफी धनी हैं। सरकार और जगती इनका प्रमुख केंद्र है। हनुमान इनके अधिष्ठाता देव हैं। चसा और कोलता में वैवाहिक समानताएं मिलती हैं और इनमें वैवाहिक संबंध स्थापित हो भी रहे हैं। कुछ बौउद से संबलपुर के विभिन्न भागों में जाकर बस गए हैं जो वहां सरसरा कोलता और जगती कोलता के नाम से जाने जाते हैं।
कालाहांडी राजपत्र
कोलता समुदाय उडीसा के उत्तर पूर्व संबंलपुर से आकर यहां बस गए थे। 1867 में राजा उदित प्रताप देव ने संबंलपुर की राजकुमारी से विवाह किया। भेंट स्वरुप संबलपुर के राजा ने इन जाति के लोगों को भी दिया। इस जाति के लोग तालाब बनाने में दक्ष और कृषि कार्य में निपुण थे जिसकी जरूरत राजा को थी । इस जाति के लोग धार्मिक, सामाजिक कार्यर्ों का संपादन ब्राह्मणों से करवाते हैं। यह जाति सामाजिक रूप से अन्य जातियों से साम्य रखती है।
संबलपुर राजपत्र
संबलपुर के तात्कालीन कलेक्टर मि. हामिद ने अपने सर्वे सेटलमेंट रिपोर्र्ट में इस जाति का उल्लेख किया है। मि. हामिद ने इस जाति का सामाजिक एवं आर्थिक व्यौरा पेश करते हुए लिका है कि सि जाति के लोग कृषि के मेरूदंड हैं। सिंचाई का भरपूर दोहन करने वाली,बेहतर तालाबों का निर्माण करने वाली यह जाति अपनी भूमि को सदैव उर्वरामय बनाए रखती है। घोर परिश्रमी यह जाति गरीबी की मार झेल रही है। वर्तमान में यह समुदाय उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर है।
इस जाति के बारे में कहा जाता है कि ये बौउद राज्य से आकर बस गए । किवंदति है कि रघुनाथिया ब्राह्मणों के आग्रह पर राजा राम ने इन्हें उडीसा जाकर बसने का निर्देश दिया था क्योंकि इन ब्राह्मणों को कृषकों की जरूरत थी। एक किवंदति यह भी है कि राजा राम वनवास के समय तीन भाइयों से मिले और उनसे पानी मांगा। पहले ने कांसे के बर्तन में पानी दिया तो सूद कहलाया, दूसरे ने पत्ते में दिया तो डूमाल कहलाया और तीसरे ने पत्थर से बने पात्र में दिया तो कुलाता कहलाया। इस तरह से सूद, डूमाल और कुलता तीन वर्गर्ों में जाने गए।
एक मिथकिय परिकल्पना भी इस जाति से जुडी हुई है। जिसके मुताबिक वनवास के समय एक कोल को पानी लाते देखते हुए राजा राम ने पानी मांगा। गरीब कोल ने पत्थर के पात्र में पानी दिया। पानी पीकर खुशी से सीता ने एक अधखाए फल को फेंका जो एक युवती के रूप में परिवर्तित हो गई जिसे कोल को उपहार स्वरूप राम ने प्रदान किया। इस युवती से उत्पन्न जितने भी भी संतानें हर्ुईं कोलता के नाम से जानीर् गईं। कोल-लिता(जूठन, बचा हुआ) के संसर्ग से उत्पन्न हुए हैं कोलिता- कोइलता-कुइलता।
देश के अन्य भागों में कोलता जाति
कोलता जाति क्या वर्तमान में उडीसा, छत्तीसगढ में ही है या देश के अन्य भागों में यह एक स्वत: जिज्ञासा है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, व इंटरनेट पर टटोलने पर मिला कि उत्तराखंड में कोलता जाति विद्यमान है। इनका संबंध यहां की कोलता जाति से है या नहीं, यह शोध का विषय है। वैसे कोलता जाति के उद्गम स्थल उप्र, बिहार, नेपाल का सीमावर्ती क्षेत्र होने के तथ्यों को देखते हए लगता है कि कहीं न कहीं से इनसे संबंध है। कोलता जाति के मूल स्वरूप कहीं यही तो नहीं हैं। इनकी आजीविका का मुख्य साधन कृषि ही है। फर्र्क केवल इतना है कि वे वहां आज भूमिहीन हैं, दूसरे के खेतों में काम करते हैं, बंधुआ मजदूर के रूप में जीनव-यापन करते हैं।
थीम्पू भूटान में आयोजित माउंटेसन वूमन कांफरेंस 2002 में पढे ग़ए शोध आलेख का यहां जिक्र्र इस संदर्भ में कुंवर प्रसूम और सुनील कैथोला ने अपने शोध आलेख में लिखा है- यह जाति भूमिहीन है। ये यमुना और चोंस नदी के किनारे आसपास के क्षेत्रों में बसे हैं। इनकी स्थिति बंधुआ मजदूरों जैसी है। गरीबी इतनी है कि महिलाएं देह व्यापार में लिप्त हैं। लडक़ियों को बेचा जा रहा है। अछूत माने जाने वाली यह जाति तीन वर्गर्ों में है। पहला खंडिच-मंडित - ये दूसरों के खेतों में काम करते हैं पर स्वतंत्र हैं। दूसरा, बात- ये बंधुआ मजदूर हैं। एक परिवार की कई पीढियां बंधुआ मजदूरी करते पाई गई हैं। तीसरा, संतायत-ये भी कृषकों की सहायता करते हैं, खेतों में काम करते हैं। ये शोध आलेख के प्रमुख अंश हैं। जिसमें नदी किनारे रहने की प्रवृत्ति , कृषि से संबंध, कहीं न कहीं मन को उद्वेलित करता है। यह शोध का विषय बन सकता है। सांस्कृतिक , धार्मिक रहन-सहन के परिपेक्ष्य में जानकारियां एकत्र कर इसकी तह तक जा सकते हैं।
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कोलता : नामकरण-एक विवेचन
प्रस्तुत लेख में प्रकट किए गए विचार समाजशास्त्रियों एवं सामाजिक शोधकर्ताओं की जिज्ञासा को उत्प्रेरित करने के उद्देश्य से प्रस्तुत किए गए हैं। लेखक की यह कदापि अपेक्षा नहीं है कि पाठक उसके विचारों से सहमति प्रकट करे। इतिहास, किंवदंति एवं भाषाशास्त्र के समन्वय से शाब्दिक विवेचन का यह प्रयास संभव है ताकि भविष्य में एक ठोस, प्रामाणिक एवं विश्वस्त धरातल का निर्माण हो सके। : चंद्रमणि प्रधान
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कोलता एक जाति विशेष का प्रचलित नाम है जो छत्तीसगढ़ के पूर्वी अंचल एवं उड़ीसा के पश्चिमांचल में बहुसंख्यक रुप से निवास करती है। कोलता शब्द छत्तीसगढ़ का है जो पूर्ण रुप से अपभ्रंश है। विगत वर्ष उड़ीसा के सुंदरगढ़ जिले में चक्रा स्थान पर अखिल भारतीय इस जाति के सम्मेलन में सर्वसम्मति से स्थिर किया गया कि इस जाति का सही नाम कुलता है कोलता नहीं। उड़ीसा में कोलता शब्द को कोई मान्यता नहीं है। किंतु मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के शासकीय अभिलेखों में कोलता शब्द ही इस जाति का बोधक होने के कारण कोलता शब्द से नाता नहीं टूट सकता। अत: अखिल भारतीय समाज ने छत्तीसगढ क़े लिए कोलता शब्द का व्यवहार जारी रखने की अनुमति प्रदान की है। साथ ही यह भी कि यहां के समाजिक संगठन कोलता के स्थान पर कुलता शब्द लाने के लिए शासन से आवश्यक संपर्क स्थापित कर नियमानुसार आवश्यक कार्रवाई करें।
इस जाति का मूल और सही नाम कुलता ही है, यह भी प्रामाणिक रुप से नहीं कहा जा सकता। यद्यपि इस नाम को स्वीकृति मिल चुकी है फिर भी जनभाषा में इसे क्विलता अधिक कहा जाता है। कही सुनी कुलिता और कुल्तिया नाम से भी इसे पुकारा जाता है। मुझे स्मरण है जब मैं सात-आठ साल का था एक बहुत बूढ़े पंडितजी मुझे कुल्तिया कहकर पुकारते थे। चूंकि वे ग्रामीण रिश्ते में मेरे दादा लगते थे मैं उनकी पुकार को एक मजाक ही समझा करता था, परन्तु आज यह आभास होता है कि कोलता का एक नामकरण कुलतिया भी कभी रहा होगा अत: इस जाति का आदि नाम क्या था यह कह पाना आज तो निश्चित रुप से विवाद की सृष्टि कर सकता है फिर भी जातियों के नामकरण की पध्दति और पृष्ठभूमि का अध्ययन संभवत: समस्या के निदान में सहायक हो सके, इसलिए विभिन्न जातियों के नामकरण पर कुछ विचार अवश्य महत्वपूर्ण होगा। भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता युगों पुरानी वर्ण व्यवस्था है। यही वर्ण व्यवस्था आगे चलकर जातियों के निर्माण की मुख्य कारक रही है। कर्म ही वर्ण व्यवस्था की आधारशिला थी। कर्म के अनुसार ही मनुष्य का वर्ण निर्धारित होता था परन्तु धीरे-धीरे कर्म की महत्ता समाप्त होकर जन्म वर्ण का आधार बनने लगा। व्यक्ति के कार्य, व्यवसाय, रुचि, दक्षता को ध्यान में रखकर वर्ण का का विभाजन जातियों में होने लगा और देश में जाति प्रथा का जन्म हुआ। सदियों से देश में विभिन्न प्रकार की जातियां बड़े समन्वित और प्रेमभाव से इस देश में निवास करती आ रही हैं। आज भी यह जाति प्रथा इतनी गहरी समाई हुई है कि इसका उन्मूलन कर पाना संभव नहीं हो सका है। जातिप्रथा के विरोध में स्वर तो बहुत उठते हैं परन्तु आज तक जाति प्रथा के विरोध में कोई आंदोलन प्रारंभ ही नहीं हो सका है बलिक विभिन्न जातियां अपनी संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज की सुरक्षा के लिए सशक्त संगठन बनाई हुई हैं। वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म रहा है तो जातियों का विभाजन भी उनके कर्म और व्यवसाय के अनुरुप ही हुआ है। जातियों का विभाजन ही नहीं उनका नामकरण भी उनके कार्यों और व्यवसायों के आधार पर हुआ है। अनेक ऐसी जातियां हैं जिनका नाम लेते ही उनके कार्य का पूर्ण बोध होता है। नाई ,धोबी, केंवट, कुम्हार, तेली, कोष्टा, धीवर आदि जैसे नाम उनके कार्य आजीविका का बोध करा देते हैं। आज परिस्थिति बदल चुकी है। आवश्यकता और विकास ने इन सभी जातियों को अपना जातिगत व्यवसाय छोड़ने पर विवश किया है और ये सभी जातियां अन्य कर्म और व्यवसायों में पर्याप्त रुप से दक्षता हासिल कर चुकी हैं, चाहे ये जातियां अपना मूल कार्य करें, ये अपनी जातीय परम्पराओं का निर्वाह बड़े गर्व के साथ करते हैं।
भारत एक कृषि प्रधान देश है और भारत की सबसे बड़ी जाति कृषकों की है। देश गांवों में बंटा है और गांवों में अधिकांश जनसंख्या कृषकों की ही रही है, कृषि ही मुख्यकर्म रहा है। परन्तु विडम्बना यह है कि भारत में कृषक या किसान नामक कोई जाति नहीं है। यदि छत्तीसगढ़ एवं पश्चिम उड़ीसा जो कभी कोशल प्रदेश था, की बात करें तो यहां का भी मुख्य कर्म कृषि ही है और यहां भी कृषक नामक कोई जाति नहीं है। इस क्षेत्र में सदियों से जो लोग खेती करते आ रहे हैं उनकी जाति का नाम भिन्न-भिन्न है। कोलता या कुलता एक कृषक जाति है उसका मुख्य कर्म खेती है। उड़िया में कृषि को चास कहा जाता है और वहां प्रत्येक कृषक अपने को चासी कहता है। कुर्मी, लोधी भी कृषि जातियां हैं। अघरिया कृषि जाति है। इन कृषक जातियों का नामकरण यह बोध नहीं कराता कि वे कृषिकर्मी हैं जैसा कि अन्य जातियों से प्राय: होता रहा है। अत: यह प्रश् विचारणीय है कि सारे देश में कृषक जातियों ने अपनी जाति का नाम का आधार किसे माना? भिन्न-भिन्न कृषि कर्मियों की जाति का नामकरण शोध का विषय है।
कुलता कृषि जाति है, उड़िया में चासी है। चासी का दूसरा नाम चसा भी है। कृषि के लिए उर्वरा भूमि और जलस्त्रोत की आवश्यकता होती है। कृषक ऐसे स्थान को पसंद करता है जहां भूमि उपजाऊ हो और आवश्यकता पड़ने पर सिंचाई के लिए पर्याप्त जल मिल सके। ऐसे स्थान प्राय: नदी के किनारे या कछार हुआ करते हैं। उड़िया में नदी के किनारे को कुल या खंड कहा जाता है। किसानों की पहली पसंद नदी का किनारा हुआ करता है। कोशल प्रदेश में विशेषकर उड़ीसा में कृषकों की बस्तियां नदी,नालों के किनारे ही प्रारंभ में बनी। यहीं पर चासी रहकर चास किया करते थे। इन चासियों के साथ अन्य जातियों के लोग भी कृषि कार्य में सहायता करते थे। कुलता जाति भी इन्हीं ग्रामों में रहकर कृषि करती रही है। यह जाति कृषि कार्य में अत्यधिक उन्नत रही है। कृषि में श्रेष्ठता इस जाति की अब भी विशेषता रही है। उड़िया भाषा में गांव के प्रमुख असरदार व्यक्ति को गडतिया कहा जाता है उसी प्रकार जैसै गढ़ी के मालिक को गढ़तिया। अत: नदी नालों के कुलों में जो श्रेष्ठ जाति निवास कर खेती करती थी उसे कुलतिया या खंडतिया कहा गया। यही कुलतिया आगे चलकर कुलता (कोलता) कहा जाने लगा। इन्हीं चसाओं का एक अंग खंडतिया आगे चलकर खंडायत के रुप में विकसित हुआ। तात्पर्य यह है कि कुलों में निवास करने वाली एक उन्नत कृषि जाति कुलता से नामित हुई। यदि आप कुलता जाति के निवास ग्रामों को देखें तो यह सत्य अपने आप प्रकट होगा कि वे सभी ग्राम किसी न किसी नदी नाले के किनारे बसे हैं। कुलता ग्राम ऐसे भी मिलेंगे जहां कुलताओं ने स्वयं होकर सिंचाई हेतु पहले पानी की व्यवस्था तालाब या बांध के द्वारा की है और फिर वहां बसे हैं। अत: यह विश्वास करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि कुलता(कुलतिया) नामकरण स्थान विशेष के कारण हुआ है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि श्रेष्ठ वंश (कुल) के कारण ही कुलता नामकरण हुआ होगा पर ऐसा कहने में आत्मप्रशंसा का भाव अधिक है, स्वाभाविकता नहीं। कुछ लोगों ने तो कुलता जाति को शब्द साम्य के आधार पर कुलु उपत्यका की एक जाति माना है जो अर्थहीन और यथार्थ से कोसों दूर है। कर्म और व्यवसाय के साथ-साथ स्थान विशेष का भी नामकरण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अपने कर्म को अधिक सार्थक और श्रेष्ठ और अनुकरणीय बनाने हेतु कुलों में निवास करने वाली जति कुलता है।
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आर्थिक परिदृश्य
कोलता समाज दशा एवं दिशा
परिचय
पुटका सरायपाली में जन्मे डॉ.नंदकुमार भोई पेशे से प्राध्यापक हैं। अर्थशास्त्र में पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त डॉ.भोई का कोलता समाज की आर्थिक स्थिति पर विश्लेषणात्मक लेख
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छत्तीसगढ क़ोलता समाज जिसे बाबा बिशाशहे कुल कोलता समाज के नाम से जाना जाता है को जातियों की श्रेणी में उच्च जाति का दर्जा दिया गया है। इस समाज में 120 वर्ग पाए जाते हैं जिसके कारण विशाशहे का नामकरण हुआ है। वर्ग, गोत्र, जातिगत गुण, समाजिक, सांस्कृतिक परंपरा एवं आचार-व्यवहार के दृषिकोण से इस समाज को एक सम्पन्न समाज का स्थान मिला है। इस समाज की आराध्य रणेश्वरी देवी या रामचंडी देवी है जो शक्तिस्वरुपा मां दुर्गा, काली देवी और लक्ष्मीदेवी के रुप ही हैं।
कोलता जाति की जनसंख्या बताना तो आसान नहीं है क्योंकि इस इसका प्रकाशित रुप में रिपोर्ट या समाजिक रुप से आंकलन नहीं हो पाया है। अनुमानत: इनकी संख्या दो लाख मानी जाती है। छत्तीसगढ़ में इस जाति का फैलाव मुख्यत: रायगढ़ ,जशपुर, बरमकेला-सरिया , सरायपाली ,बसना एवं पिथौरा के अलावा महासमुंद, रायपुर, भिलाई, बिलासपुर एवं कोरबा आदि नगरों में है, जो रोजगार या शिक्षा अर्जन हेतु इन नगरों में बस गए हैं। परंतु इन का संबंध अपने मूल ग्रामों में बना हुआ है। इस समाज का समाजिक रहन सहन, सांस्कृतिक एवं भाषाई विशेषताएं संबलपुर अंचल से मिलती जुलती हैं। माना जाता है कि यह प्रांत प्रारंभ में उत्कल के संबंलपुर प्रांत में सम्मिलित था। जो महाकोशल में शामिल था कालांतर में उड़ीसा के पृथक अस्तित्व में आने से यह क्षेत्र पृथक हो गया। यह भ्रम अवश्य प्रसारित किया जाता रहा है कि इस समाज का आगमन बहुत पहले उड़ीसा प्रांत से हुआ है परंतु इतिहासकार खंडन करते हैं कि यह समाज मूल रुप से यहां ही बसा है राज्यों का विभाजन होने के कारण यह जाति अलग-अलग क्षेत्र में बंट गए।
कोलता जाति एक मध्यमवर्गीय समाज है। सामाजिक इतिहास का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि यह समाज कृषि प्रधान समाज है तथा भूमि के दृष्टिकोण से धनाढय समाज है। पूर्व में इस अंचल के हर गांव में इस जाति का गौटिया (प्रमुख)हुआ करता था। गांव के गौटिया के बनाए गए नियम एवं व्यवस्था उस गांव में लागू होते थे। अब कृषि पर लागत बढ़ने, इस वर्ग की कुछ अपनी कमजोरियों तथा समाजिक पारिवारिक टूटन के कारण यह प्रथा समाप्ति की ओर है। एक दृष्टि से इसे इस जाति के गौरव का विलुप्तिकरण कह सकते हैं।
इस समाज का रहन-सहन संकुचित होता है। एक छोटे से जगह पर कई लोगों का निवास होता है। अनिवार्य सुविधाओं का अभाव देखा जा सकता है, जब तक अनिवार्य नहीं हो जाता वे अन्यत्र निवास नहीं करते हैं। पलायन की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती अपने आसपास के वातावरण को छोड़ना नहीं चाहते परिणामस्वरुप ये काफी संकुचित होते हैं,संभवत: इसी कारण इनकी सोच का दायरा विशाल नहीं होता जो इस समाज के अवनति का प्रमुख कारण माना जाता है।
कोलता समाज का अधिसंख्य आज भी कृषि पर निर्भर है अर्थात कृषक आधारित समाज है। बड़े कृषकों का छोटे-छोटे रुप में तब्दील हो जाना, कृषि लागत अत्यधिक बढना, इस समाज का इन्य क्षेत्रों स्थानांतरण न हो पाना तथा इस समाज के लोगों का कृषि पर निजी भागीदारी न होकर दूसरे श्रम से निर्भर होना ऐसे कुछ विशेष कारण है जिससे कृषि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता जा रहा है, जबकि लागत लाभ शून्य है। परिणामस्वरुप आज समाज की आर्थिक स्थिति दयनीय नजर आ रही है। इस समाज में (नौकरीपेशा वर्ग को अलग कर देखें तो)आय की तुलना में बचत न्यून है। समाज की परंपरागत आदतें, खानपान, पहनावा, दिखावा पर खर्च अधिक है। स्वत: उपार्जन नहीं के बराबर है, और नही बचत की प्रवृत्ति है। आज समाज कृषि से विमुख हो रहा है। समाज एक अजीब दयनीय स्थिति से गुजर हो रहा है। हमारे सामने कुछ ऐसी जातियां (समाज) हैं जिनका मूल आधार खेती ही है पर वे खुद परिश्रमी हैं,स्वयं का श्रम है, बचत करने की प्रवृत्ति है, विकासवादी सोच है, कुछकर गुजरने की तमन्ना है। अन्य को आगे को बढ़ते देखकर आगे बढ़ने, बढ़ाने की प्रवृत्ति है। उसकी बराबरी करने की सोच है न कि दूसरों को गिराने की। उनमें प्रतिस्पर्धा करने की भावना है न किर् ईष्या की। जिसके कारण ये समाज निरंतर उन्नति की ओर अग्रसर हैं।
इस समाज में आधुनिक व्यवसायिक सोच का अभाव है। आज भी परंपरागत कृषि को अपनाया गया है। कृषि में व्यवसायिक फसलों के उत्पादन को महत्व नहीं दिया जा रहा है। निज सिंचाई सुविधाओं का अभाव है,नए कृषि तकनीकों को अपनाने से आज भी हिचकता है। सरकारी योजनाएं जो कृषि संवर्धन के लिए लागू किए जा रहे हैं यह वर्ग उसका लाभ कम ही उठा पा रहा है या कहें नवीन कृषि उन्नत तकनीक का प्रभाव इस समाज पर कम ही देखे जाते हैं। इसका प्रमुख कारण (रिस्क वियरिंग केपेसेटी) जोखिम लेने की क्षमता का अभाव है, जो विकास के लिए एक बड़ी बाधा है।
कोलता समाज में पुरुष शिक्षा का स्तर अच्छा है। साक्षरता दर अधिक है। समाज में उच्चशिक्षा प्राप्त लोगों का एक समूह सा है। समाज के अधिकाशंत: शिक्षकीय पेशे से जुड़े हैं जो खेती में संलग् हैं। परन्तु प्रशासनिक क्षेत्र या उच्च पदों पर इनकी संख्या न्यून है। कृषि पर पूर्णत: निर्भर होने के कारण बेरोजगारों की संख्या अधिक है। रोजगारोन्मुखी पाठयक्रम के प्रति न्यून रुझान, अध्ययन हेतु अन्यत्र न जाने की विवशता, प्रतियोगी परीक्षाओं में उचित मार्गदर्शन का न मिल पाना या फिर इसके लिए ऐसा महौल न मिल पाने से इस समाज के युवा दिशाहीनता के शिकार हो रहे हैं। कोलता समाज पुरुष प्रधान समाज है। महिलाएं अब भी घर की चहारदीवारी से बाहर नहीं निकल पाईं हैं। हालाकि वे कृषि कार्यों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहता है। खेतों में वे अपने पति के साथ हाथ बंटाती हैं। घरों में खेती विषयक अन्यत्र कई जिम्मे उनके हवाले रहते हैं। अधिकांश युवतियों की संख्या माध्यमिक या फिर प्राथमिक स्तर तक है। नौकरीपेशा महिलाओं की संख्या नहीं के बराबर है।
किसी भी समाज में सम्पन्नता उसकी व्यवसायिक सोच, व्यापारिक योगदान से जाना जा सकता है। अब तक समाज के किसी सम्पन्न व्यक्ति द्वारा बड़े उद्योग तो दूर लघु उद्योग भी संचालित नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में अति लघु व्यवसाय हैं जो एक आशा का संचार करती हैं। कुल मिलाकर कहें तो व्यवसायिक सोच का अभाव , लागत की कमी, सामाजिक एवं घरेलू प्रश्रय नहीं मिलना भी इनके कारण हैं।
सहयोग की भावना से किसी समाज का विकास संभव जो इस समाज की एक सबसे बड़ी कमजोरी है। विकासवादी सोच का अभाव इस समाज में देखने को मिलता है। आर्थिक रुप से किसी के लिए संबल न बन पाएं तो क्या हमें उसे मानसिक या नैतिक रुप से संबल नहीं देना चाहिए। इस पर गौर करनना जरूरी है। छत्तीसगढ क़ी जनसंख्या 2 करोड़ की तुलना में छत्तीसगढ क़ोलता समाज की जनसंख्या 2 लाख एक प्रतिशत ही है। जिसे अल्पसंख्यक कहा जा सकता है। समाज का मूल आधार कृषि निरंतर गिरावट की ओर है। कृषि पर लागत बढ़ रहा है, खेतीहर श्रम की कमी होती जा रही है। बेरोजगारी का दबाव भी बढ़ रहा है। बचत का अभाव कुछ ऐसे प्रमुख कारण हैं जिससे समाज की दशा दयनीय स्थिति को उजागर करता है। समाज को एक नई दिशा की जरूरत है। सम्पूर्ण जातिगत सोच में बदलाव लाना होगा और आर्थिक क्रांति की ओर अग्रसर होना होगा। इस दिशा में कुछ बिंदुओं पर चिंतन और मनन करना होगा।
1.समाजिक संगठन मजबूत हो तथा इसमें ऐसे लोगों को स्थान दिया जाए जो विकासवादी सोच के साथ उर्जावान हों।
2. अल्पसंख्यक समाज की तरह सहयोग की भावना रखें और इसकी बुनियाद भी अपने आले वाली पीढ़ी पर जरूर डालें।
3. कृषि के पारंपरिक तकनीक में बदलाव लाना होगा व्यापारिक फसलों को लेना होगा भले ही वह कम रकबे में हो। इस हेतु सरकारी कई अन्य योजनाओं पर भी ध्यान देना होगा। दुग्धपालन बकरीपालन जैसे व्यवसाय वे आसानी से कर सकते हैं, इससे उनको आर्थिक संबल मिलता रहेगा। घरेलू खर्चों में भी मितव्ययता अपनानी होगी।
4. नई पीढ़ी को नौकरी की अपेक्षा निज व्यवसाय की ओर प्रेरित करना होगा। महिला शिक्षा को ेप्रोत्साहित करना होगा, बालिकाओं को कम से कम हायर सेकेण्डरी स्तर तक शिक्षा प्रदान करें।
5. राजनीतिक भागीदारी पर भी ध्यान देना होगा जिससे समाज को एक दिशा मिल सके।
अन्त में, समाजिक परिवर्तन या विकास दो या चार साल में नहीं होता बल्कि यह दीर्घकालीन प्रक्रिया है। जिसकी शुरुआत आज से करनी होगी। हर समाज की कमियां भी हैं तो विकास का आधार भी। इस आधार को और मजबूत करना होगा। आज हमें अपने अनुवांशिक सोच में बदलाव लाना होगा। छत्तीसगढ़ कोलता समाज की रायपुर इकाई ऐसे संघर्षपूर्ण समय में सामाजिक दशा एवं दिशा पर एक बहस छेड़कर निश्चित ही साधुवाद का पात्र है। यह प्रयास केवल और केवल पत्रिका के कलेवर तक सीमित न रहे उसे समाज को उन्नतिशील समाज की दिशा में आगे ले जाने हेतु प्रयास करना होगा तभी उसका प्रयास सार्थक होगा तथा अन्य भी इससे प्रेरित होंगे।