Saturday, February 9, 2019

इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं।

इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं
 -रामचरित मानस में लक्ष्मण ने परशुराम के स्वभाव पर व्यंग्य किया कि मुनिवर स्वयं को महान योद्धा मान रहे हैं।  मुझे अपना फरसा दिखाकर ही डराना चाहते हैं, वे कोई छुईमुई का पौधा नहीं हैं, जो तर्जनी ऊंगली  देखकर डर जाएंगे।
त्रेता युग था, तब तर्जनी दिखाने देने से कुम्हड़ा का नाश हो जाता था या कहें वह सड़ जाता था। आज भी आपको गांवों में तुलसीदास की ये पंक्तियां सुनाते लोग मिल जाएंगे। बुजुर्ग, बच्चों को भी कुम्हड़े की ओर तर्जनी दिखाने या इशारा करने से मना करते हैं।
खैर... यह तो माना जा सकता है कि त्रेता युग में भी ऊंगली   दिखाने की परंपरा रही होगी, ऊंगली  करना अपराध नहीं रहा होगा। द्वापर में कृष्ण भगवान की ऊंगली  में ही सुदर्शन चक्र फंसा रहा। वह भी तर्जनी में। पर वह सदा उध्र्वगामी रहा। इस युग में एक गुरूजी एक कदम आगे निकले, जो अपने दलित गरीब भक्त शिष्य की तर्जनी की पड़ोसी अंगूठे की ही दक्षिणा ले ली।
अब जरा कलयुग की ओर आएं। यहां तो पूरा कारोबार ऊंगली का है। कलयुग यानि कलपुर्जे वाला वैज्ञानिक युग, कलयुग यानि आज का काम कल पर टालने वाला। उंगलियां इस युग में आते-आते बहुत तेज-मारक हो गई हैं। सब कुछ संभव कर दिखाती हैं। दिखाने से लेकर करने करने तक। बिना ऊंगली  कोई काम नहीं होता। कठोर हो या छुईमुई हाथ वाली, सभी ऊंगली  दिखाते हैं, सभी ऊंगली   करते मिल जाएंगे। एक तरह से इसके बिना कोई काम हो नहीं सकता। नेता एक-दूसरे की ऊंगली   करके दिखाके ही कारोबार करते हैं, जीते और मरते हैं। इनके ऊंगली कटा शहीद होने की परंपरा चली आ रही है। अंगूठा दिखाना इनकी आदत में शामिल होता है। बेचारा अंगूठा उंगलियों की श्रेणी में शामिल हो अलग-थलग रहता है।
मोबाइल नामक यंत्र इस युग की सबसे बड़ी इजाद और जरूरत बन गई है।  नाना स्वरुप, रंग रुप, आकार-प्रकार में पूरी दुनिया में तेजी से घूर्णित, चलायमान, परिवर्तनकारी इस यंत्र का पूरा दारोमदार  ऊंगलियों पर टिका है। जिस तरह भगवान कृष्ण के हाथों सुदर्शन नामक मारक अस्त्र-शस्त्र था, बिल्कुल उसी तरह आज हर इंसान के हाथों विराजमान।
आसपास से बेखबर, झुकी हुईं आंखें, दोनों हाथों की उंगलियां तेजी से इस यंंत्र के हर छोर पर घूमती हुई, सड़कों, चौक-चौराहों, बागों-दूकानों में आपको मिल जाएंगी। चारी-चुगली, इश्क-विस्क, दंगा-फसाद,खोज-खबर, निगरानी-शैतानी,धर्म-अध्यात्म, खेल-कारोबार, आहार-विहार, सब कुछ इन्हीं उंगलियों से संचालित होता है। यानि अब सभी ऊंगली  करते हैं, सिर्फ दिखाते नहीं करके दिखाते हैं।

बस अब-इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं।
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धृति क्या है?

गुरुजी के दो सवाल पर जवाब-
-डॉ. निर्मल कुमार साहू
धृति क्या है?
धृति और साहस दोनों का उत्साह के बीच संचरण होता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध उत्साह की इस पंक्ति में धृति शब्द का अर्थ हमारे साहित्यकार मित्र, शिक्षक श्री राम साहू जी के भी पकड़ में नहीं आया। आज के हिंदी शब्दकोशों में भी नदारत था। फोन आया तो मैं भी नहीं बता पाया पर लगता था इस शब्द से परिचित हूं।
कक्षा 10 वीं के हिंदी विशिष्ठ पाठ्यक्र में यह निबंध शामिल है। वर्तमान साहित्य में पूरी तरह से खारिज कर दिए गए इस अप्रचलित शब्द से शिक्षकों का हड़बड़ा जाना तय है। बच्चों में साहस ही था कि धृति का मतलब पूछ लिया। खैर रात को ही संस्कृत और हिंदी के शब्दकोश खंगाले। इस शब्द को ढंूढते जिन शब्दों की परिक्रमा हो गई लगा कि इस पर छोटा-मोटा न सही, दुबला-पतला तो लिखा जा सकता है।
भाषा- शब्दकोश रमाशंकर शुक्ल के मुताबिक धृति- संज्ञा/ स्त्रीलिंग/ संस्कृत शब्द है जिसका आशय है-धारण, ठहराव। धर्म की पत्नी है- धृति। धृतिमान इसीलिए स्थिर चित्त, धीर और गंभीर। मनुस्मृति का जिक्र करते उद्धृत किया गया है-धृति: क्षमा दया मौस्तेय: शौचमिन्द्रिय: निग्रह।
धृति से गुजरते धृत पर ठहर गया- संस्कृत के इस विशेषण का आशय है धरा या धारण किया हुआ , स्थिर।
रामायण का उदाहरण था- धृत सायक पाप निषंग वरम। धृतराष्ट्र यानि दृढ़ राजा का राज्य,अच्छे राजा से शासित राज्य, पर इसका विचलन हो गया। धृतराष्ट्र अब ऐसे अंधे के लिए उपयोग होने लगा है जो पुत्रमोह में वशीभूत हो अपना आपा को बैठे। वैसे सारे अंधे सूरदास से विशेषित थे विज्ञान के इस युग में ये मोदीजी की कृपा से दिव्यांग हो गए हैं।
जंयती मंगला भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा , क्षमा, शिवा, धातृ, स्वाहा, स्वधा, नमुस्तते।
इस श्लोक का धातृ/ धात्री शब्द ही था जिसे लगा था कि मैं धृति शब्द से परिचित हूं। धातृ/ धात्री- संस्कृत शब्द है। अर्थ है -मां-माता। इसका विपयर्य है-धाता। संज्ञा/पुल्लिंग। धाता अर्थात धारण या पालन करने वाला। रक्षक या पालक। विधाता कहते ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश सामने आ जाते हैं।
उत्साह- दृढ़ता और साहस के बिना संभव नहीं। इसीलिए तो लिखने का यह उत्साह बना।
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उनका दूसरा सवाल था- श्रद्धा और प्रेम में बड़ा कौन है? दरअसल यह सवाल 12 वीं के एक छात्र का है- जिसका उत्तर वेनहीं दे पाए।
एक झटके में मेरे भीतर से जो जवाब मिला वह था -प्रेम।
प्रेम मां है तो श्रद्धा संतान
प्रेम के गर्भ से ही शद्धा का जन्म होता है।
दो उदाहरण- मां के इस प्रेम को देख उसके प्रति श्रद्धा उमड़ पड़ी।
उस तपस्वी के वैराग्य, त्याग, ज्ञान को देख मन में श्रद्धा का भाव उमड़ा पड़ा।
यानि प्रेम से ही जन्मी है श्रद्धा।
जहां घृणा जन्म ले वहां श्रद्धा कहां?
आसाराम, रामपाल जैसों के कारनामे देख सुन
अब बाबाओं के प्रति श्रद्धा कहां?
श्रद्धा में प्रेम अनिवार्यत: शामिल रहता है,
प्रेम में श्रद्धा जरूरी नहीं।
प्रेम में स्वार्थ हो सकता है, श्रद्धा में नहीं। क्योंकि वह विश्वास की जन्मघंूटी लिए फिरता है।
श्रद्धा से प्राप्तकर्ता को लाभ मिलता है (आजकल हानि भी) देनेवाले को कुछ नहीं।
प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाहि।
पे्रम में, मैं का अस्तित्व नहीं। आग्रहहीन होकर, अटूट विश्वास एक-दूसरे के प्रति। एकसार, एक दूसरे में समाये।
प्रेम में शारीरिक भंगिमाएं प्रतिक्रियाएं उभर जाती हैं। श्रद्धा में ऐसा नहीं होता।
कुल मिलाकर प्रेम का स्थान बड़ा है, जो जीवन को गति देता है और श्रद्धा उस गति में संतृष्टि। वैसे जब दोनों अंधे हो जाते हैं तो अंधश्रद्धा उससे भी खतरनाक।
नोट- यह विश्लेषण सामान्य ज्ञान पर आधारित है। गूगल की सेवाएं नहीं ली गई हैं। प्रेम का ढाई आखर पढ़ नहीं पाए सो पंडित नहीं बना पाए, असहमति का सादर स्वागत है।