Tuesday, August 25, 2009

झंडे-डंडे के बहाने





सांसद नवीन जिंदल के तिरंगेे को आम जनता के घरों पर फहराने के हक की जीत के बाद लोगों में राष्टï्रभावना बढ़ी है। अब तिरंगा घरों में भी लहराने को देखने को मिल रहा है। हालांकि अब इन्हीं नवीन जिंदल पर राष्टï्रध्वज के अपमान का अरोप लगना शुरू हो गया। उनके विज्ञापनों को लेकर कुछ संगठनों ने नाराजगी व्यक्त की, विरोध-प्रदर्शन किया।
अस्तु, महासमुंंद जिले के बसना ब्लॉक के बंसूला डीपा निवासी श्रीराम साहू अकेला गत दो सालों से हर पंद्रह अगस्त और 26 जनवरी को अपने अभिराम सदन में तिरंगा फहराते आ रहे हैं। पहले खुद तिरंगा फहराते थे पत्नी-बच्चों के साथ, उसके बाद स्कूल के लिए निकल पड़ते थे। इस बार उन्होंने अपने मित्र बद्रीप्रसाद पुरोहित के हाथों तिरंगा फहराया। ये वही बद्रीप्रसाद हैं जो पेशे से शिक्षक हैं, जिनकी कविता ने बसना में भूचाल ला दिया। उनकी स्कूल से खिंचकर पिटाई की गई, और उन्हें बहुत कुछ झेलना पड़ा। ये शिक्षक कवि वही हैं जिन्हें कभी कलेक्टर ने ईमानदारी का तमगा दिया था, अपनी बिरादरी में अपनी इस ईमानदारी के कारण न जाने कितनी बातें सुननी और झेलनी पड़ी थीं।
बहरहाल यह औरों को छोटी सी बात लगे पर जब देश के हर शहर, गांव, मुहल्ला, चौक-चौराहों पर अपने-अपने झंडों का कब्जाने का दौर शुरू हो गया है, यह अकेला प्रयास एक नई उम्मीद की किरण दिखाई देती है। अपने घर से ही शुरूवात करें, कि इस तिरंगे के आगे दूसरा रंग ऊपर नहीं हो सकता।


कुछ दिनों पहले मुझे बसना जाने का मौका मिला। यहां से गुजरते बसना के मुख्य चौक पर लगे लैंप पोस्ट पर झंडों के एक-दूसरे से आगे बढ़कर फहरने का होड़ दिखाई दिया। शायद, झंडे के डंडा का कद उतना जितना उस रंग के अनुयायी। खैर---लैंप पोस्ट से आगे निकलकर फहराने की जिद सबकी, पर डंडा तो आखिर किसी न किसी का छोटा होगा। बाकी उसे सलामी देते तो नजर आएंगे ही। इस चौराहे पर सबसे आगे निकलकर फहरने की होड़ हर रंग की थी पर चौराहे पर ही क्यों? मैंने पहली बार कई घरों के आगे खास रंग के झंडे फहरे देखे।
उधर लैंपपोस्ट पर जब एक खास रंग ने इन सबसे आगे फहरने की इच्छा जताई तो रंग न पहचान पाने के दृष्टिïदोष वाले स्थानीय प्रशासन ने तमाम रंगों वाले इन झंडों-डंडों को निकाला। आखिर उनकी नजर में सब एक ही तो हैं? चलो इसी बहाने कुछ अच्छा तो हुआ। श्रीरामजी का कहना है कि जब मंत्रियों, अफसरों, कारखानों, स्कूलों में तिरंगा फहराए जाने की खबरें छपती हैं तो क्यों उनके घर में फहरे इस झंडे को जगह नहीं मिलनी चाहिए? कम से कम उनका यह तिरंगा भी तो अखबारों के समाचारों में दो-चार लाइन पाने का हकदार है। शायद उनके तिरंगे में डंडा नहीं है, एक सांटी (छड़ी)के भरोसे है जो प्यार की हवा का हल्का सा झोंका पाकर विनम्रता से झुक जाता है, और लोग इसे डरकर झुक जाना कहते हैं।
श्रीरामजी की पीड़ा यह भी थी कि घर उनका, पर रंग जब उन्होंने अपनी पसंद का पुतवाया तो पड़ोसी समेत आसपास के लोग कहने लगे अरे यह तो फलां मजहब का रंग है और तुम तो...। तुमने यह रंग क्यों पुतवाया। कुछ जगह फुसफुसाहटें भी होतीं, जैसा कि आम भारतीय में देखने को मिलता है। पत्नी, बच्चे भी बातें सुनते तो वे मुझे ऐसे देखते जैसे मैं मुजरिम हूं। तब फैसला किया कि क्यों न तिरंगा का रंग पूरे घर को सराबोर करे।
अब लोग इस रंग पर क्या कहते हैं -मेरे सवाल पर कहते हैं कि अब मैं सबको राष्टï्रवादी दिखता हूं। कविता-कहानी लिखता हूं तो अब राष्टï्रवादी रचनाकार हो गया हूं। पेशे से शिक्षक हूं इसलिए देश भक्त गुरूजी बन गया हूं।
अब बात आकर अभिराम पर ठहर गई? यह नाम भी तो किसी खास रंगवालों का है तो उनका जवाब था- श्री राम और भाई साहब अभि का नाम मिलकर अभिराम है। नाम तो मेरा माता-पिता का दिया है, जिस पर मेरा बस नहीं था।वैसे झंडे-डंडे के इस दौर में थोड़ी सी सावधानी भी जरूरी है। जिस तेजी से नेता झंडे-डंडे बदल रहे हैं, जिस तरह से तेजी से डंडे बदल रहे हैंकब किस रंग की ओर है समझ में नहीं आता। जसवंत के झंडे से जिस तेजी से डंडा निकाला गया, बेचारे अब कहीं के नहीं रह गए हैं। शायद अब वे बेझंडों-बेडंडों वाले साथियों से मिलकर कुछ नई जुगत लगाएं। यह तो आने वाला समय बताएगा। पर इसी बहाने चलो झंडे और डंडे पर दो चार बातें हो गईं।

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