आसमान बस कुछ ही कदम हमसे दूर था। सूरज ऐसा लग रह था मानो लाल गेंद हो। हनुमान द्वारा सूरज को कोई फल समझकर मुंह में भर लेने की कथा बरबस ही मेरी स्मृति पटल पर उभर आई। सूरज की पूरी उर्जा मानो यहां आकर शांत हो जाती हो। हम दार्जिंलिंग में, मई की भरी गर्मी में ठिठुर रहे थे।
30 अप्रैल को हमने माना विमानतल से कलकत्ता के लिए एयर डेक्कन के विमान से रवाना हुए। पहली बार मैं घर से दूर इतनी दूरी की लंबी यात्रा पर निकली थी। पहली बार विमान में बैठने का सुयोग मिला था। रोमांच, डर, उत्सुकता और न जाने क्या कुछ मन में समाया हुआ था। हमारे दोनों बच्चे आयु और पियुष तो न जाने कितने दिनों से विमान के सफर की बातें किया करते थे।
एक दिन पहले पहुंचे मेरे पति के मित्र रामनारायण व्यास कलकत्ता में अपने परिवार के साथ इंतजार कर रहे थे लेकिन रायपुर में विमान ने लगभग दो घंटे देरी से उड़ान भड़ी और हमारे वहां पहुंचते तक छूट गया। मित्र के परिजन जो उन्हें वहां छोड़ने आए थे वे हमारा वहां इंतजार कर रहे थे। हम जब पहुंचे तो उन्होंने मित्र के रवाना होने की जानकारी दी। उन्होंने हमारे लिए भोजन का पैकेट भी तैयार कर रखा था। उन्होंने तुरंत हमारे लिए बस की व्यवस्था की। उनकी व्यवस्था करते तक हमने स्टेशन में उनके द्वारा लाया गया भोजन भी कर लिया। हम यहां से एक एरकंडीशन बस से रात साढ़े 11 बजे हम कलकत्ता से सिलीगुड़ी के लिए रवाना हुए।
बस की खिड़की से पति विवेक भोई के साथ दार्जिलिंग की हसीन वादियों का नजारा अपने दिल में कैद करते मेरा मन बार-बार यही कह रहा था अच्छा हुआ ट्रेन छूट गई। नहीं तो ऐसे मनोरम नजारे को देखने का मौका इतनी करीब से कैसे मिलता। ऊंची निची पहाड़ियों घाटियों तंग संकरी सड़कों से गुजरती हिचकोलें खाती हमारी बस अपने गंतब्य की ओर अग्रसर हो रही थी।
उधर मेरे दोनों बच्चे आयुष और पियूष बार-बार पूछने लगे थे कि हम कब पहुंचेंगे। 12 घंटे की सफर तय करने के बाद बस सिलीगुड़ी पहुंची। सिलीगुड़ी में रामनारायण व्यास, उनकी पत्नी हेमा व्यास, दोनों बच्चे दिव्यांस और राघव बेसब्री से हमारा इंतजार कर रहे थे।
सिलिगुड़ी
सुबह 11 बजे हमारी बस सिलीगुड़ी पहुंची। यहां के एक लॉज में व्यास परिवार हमारा इंतजार कर रहा था। यहां लाज में नहा धोकर खाना खाया और सफर की थकान दूर करने पलंग में पसर गए। थोड़ी सी नींद ने हमें तरोताजा कर दिया था। अब यहां से व्यास परिवार के साथ दार्जिलिंग के लिए हम रवाना हुए।
हमने दार्जिलिंग जाने के लिए यहां से टैक्सी ली हालांकि यहां जाने के लिए ट्रेन भी उपलब्ध हैं। बरसों पुराना बाप इंजन वाली यह ट्रेन टाय ट्रेन के नाम से जानी जाती है। इस ट्रेन का मजा यदि आपके पास समय ज्यादा हो तो लिया जा सकता है लेकिन हमारे पास वक्त उतना नहीं था। पर ट्रेन को अपने ही साथ-साथ चलते देखते जाने का मजा पहली बार यहां आप ले सकते हैं। पटरी और सड़क साथ-साथ चलते हैं। कुछ इस तरह लगता है मानो पटरी और सड़क एक दूसरे से वेणी की तरह गुंथी हुई हो। पहाड़ी के कारण इस ट्रेन की गति काफी धीमी होती है। धीरे-धीरे रुककर चलती हुई ट्रेन से आप जगह-जगह उतरकर आसपास के दृश्यों का मजा ले सकते हैं।
धीरे-धीरे हमारी टैक्सी उपर बढ़ी जा रही थी। ज्यों-ज्यों हम पहाड़ियों के उपर बढ़ते जा रहे थे ठंड भी बढ़ने लगा। कहां रायपुर का तपिश से निकले हम अब ठंड की आगोश में थे। उंची-उंची पाहड़ियां, संकरे मार्ग, टेढ़े-मेढ़े रास्ते साथ-साथ गुजरती ट्रेन की पटरी, नीचे गहरी खाई। ड्राइवर की हल्की सी लापरवाही मौत के मुंह में ला खड़ा कर दे। मन यहां आते-आते थोड़ा सा दार्शनिक होने लग गया था। टैक्सी ड्राइवराें और ट्रेन चालक का आपसी समन्वय देखकर लगा कि दोनों के रास्ते एक हैं, मंजिल एक, पर संसाधन रुप से अलग-अलग पर होते हुए भी कितने सजग और सुचारू हैं। कहीं-कोई गलतफहमी, चूक की गुंजाइश नहीं। दाम्पत्य जीवन भी तो इसी तरह है। लुभावने चाय के बागानों को मैंने फिल्मों में देखा था पर रास्ते भर फैले इन बागानों को देख उसकी ताजगी यहां आकर महसूस करने को मिली।
टाइगर हिल
अब हम थे टाइगर हिल में। हवा में लाल गेंद की तरह लटका सूरज। ऐसा लगा मानों हम आसमान से कुछ कदम ही दूर हैं। हनुमान द्वारा सूरज को कोई फल समझकर मुंह में भर लेने की कथा बरबस ही मेरी स्मृति पटल पर उभर आई। सूरज की पूरी उर्जा मानो यहां आकर शांत सी हो जाती हो। दार्जिलिंग में हम चाय के बागानों में गए। चिड़ियाघर, संग्राहलय, बौध्द मंदिर, रॉक गार्डन, मिरीक झील देखा। सब कुछ अनुपम, सब कुछ सबसे अलग हटकर, क्या कह,ूं क्या लिखूं , शब्द भी पकड़ में नहीं आ रहे। हर शब्द अपने वजन में कमतर और छोटा पड़ने लगा। बच्चों ने तो रॉक गार्डन में खूब मजे किए।
गंगटोक
अब हमारा लक्ष्य था सिक्किम की राजधानी गंगटोक। दार्जिलिंग से यहां जाने के लिए 140 किलोमीटर का सफर सड़क मार्ग से तय करना पड़ता है। 11 किलोमीटर तक साथ-साथ चलती है चंचला तिस्ता नदी। 11 किलोमीटर के इस फासले को हमने राफ्टिंग से तय किया। राफ्टिंग के इस रोमांचपूर्ण सफर ने तन-मन में एक नई उर्जा भर दी थी।
इसके बाद हम आगे के लिए रवाना हुए। पहाड़ों से गुजरते कल-कल करते झरने, फूल पौधों से लदी धरती को देख लगा मानो स्वर्ग का एक हिस्सा यहीं पर आकर ठहर गया हो। नाना परिधानों से सजी प्रकृति के इस रुप को निहारते जब हम सिक्किम पहुंचे तो शाम के 6 बज गए थे। गंगटोक में शाम 5 बजे से रात 9 बजे तक टैक्सी के प्रवेश पर प्रतिबंध है हम टैक्सी स्टैंड से पैदल ही लॉज पहुंचे। यहां सस्ते से लेकर महंगे लॉज भी उपलब्ध हैं। आप अपनी आय और जरूरत के हिसाब चुनाव कर सकते हैं।
गंगटोक में सबसे अच्छी बात यहां पर पालीथीन पर लगा प्रतिबंध लगा। यहां पालीथीन का उपयोग करते पकड़े जाने पर जुर्माना देना पड़ता है। लगा काश हमारे छत्तीसगढ़ में भी ऐसा कानून लागू होता तो देश का सबसे गंदा शहर का खिताब मिलने से रायपुर को नवाजा तो नहीं जाता। सुबह होते ही हम सबसे पहले बौध्द मंदिर गए फिर बौध्द संग्रहालय देखा, फिर जूलोजिकल गार्डन।
रोप वे से गंगटोक का नजारा अपने आप में अलग अनुभव रहा। हरेभरे पहाड़, सीढ़ीनुमा खेत सर्पाकार सड़कें और उन पर दौड़ी टैक्सियां मन के हर कोने को छू गईं। आपके पास पैसे हो तों आप किराए में हेलीकॉप्टर भी ले सकते हैं। दिनभर आसपास के अन्य कई जगहों को देखा कुछ खरीददारी की।
यूमथांग
हमारा अगला पड़ाव था यूमथांग। गंगटोक से 28 किलोमीटर दूर समुद्रतल से 12 हजार पीट की उंचाई पर स्थित । रास्ते भर लाल और सफेद आर्किड फूल मानो आपका कोई गुलदस्ता लेकर स्वागत कर रहा हो। पहाड़ाें में बिछी बर्फ की चादर जैसे शिव भस्म लगाए समाधि में लीन हाें। टैक्सी के चालक ने बताया कि ये फूल अपने आप लगते हैं इसे लगाया नहीं गया है।
यूमथांग से पहाड़ों का सफर 16 किलोमीटर तय करना पड़ता है। यहां का मौसम बच्चों सा है, एकदम नाजुक। पल भरमें बदली और फिर बारिश। सूरज की किरणें यहां मानो पतली हो जाती हैं। यहां हम सबने बर्फ का खूब मजा लिया। बच्चे तो घरौंदे बनाने और एक दूसरे पर बर्फ फेंकने में जुट से गए थे। आसानी से स्केटिंग करते लोगों को देखकर ऐसा लगा मानव ने प्रकृति के हर रुप का उपभोग अपने तरीके से करना सीख लिया है। दिन भर यहां मौ- मस्ती करने के बाद हमने रात लॉज में बिताई। यहां रहने और खाने के लिए पैकेज की व्यवस्था है। यहां लॉज में कंबल ही नहीं स्वेटर तक किराए में उपलब्ध हो जाते हैं यह जानकर हमें इस बात पर अफसोस हुआ कि हमने आने से पहले इस तरह की छोटी-छोटी जानकारियां क्यों इकट्ठी नहीं कर लीं। रायपुर से गरम कपड़े इतने लाए थे कि एक सूटकेस तो उसी का था।
नाथु ला और बाबा मंदिर
अब हम अगले दिन निकल पड़े नाथु ला के लिए। गंगटोक से इसकी दूरी है 168 किलोमीटर। रास्ता बहुत ही खतरनाक, मौत जैसे हर पल किसी का इंतजार कर रही हो। रास्ते भर किसी अनहोनी की आशंका से घिरे हम हनुमान जी को याद करते रहे। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से गुजरते ऐसा लग रहा था मानो बादल सिर को अब छूकर निकल जाएगा। इसी रास्ते में हमने प्रसिध्द झील मंदाकिनी को देखा।
हमारी उत्सुकता बाबा मंदिर को लेकर थी अब तक हमने अखबारों, पत्रिकाओं से इसके बारे में थोड़ा बहुत जान रखा था। आज यहां इसके साक्षात दर्शन होने जा रहे थे। बाबा मंदिर में सैनिक अधिकारी हरभजन सिंह की पूजा की जाती है। माना जाता है कि हरभजन सिंह देश के प्रति अपना फर्ज निभाते अदृश्य हो गए थे परंतु आज भी यहां उनके होने का अहसास होता है। उनके कबिन में आज बी एक मेज और एक कुर्सी रखी हुई है। उनके फोटो के सामने लिखा हुआ है- आप यहां से जाएं तो लोगों को यह बतलाएं कि मैंने अपना आज उनके कल के लिए कुर्बान कर दिया है। नाथू ला आने वाल हर सख्श इस मंदिर में जरूर आता है।
बाबा मंदिर से 9 किलोमीटर आगे है नाथू ला। बाबा मंदिर से यहां का सफर पैदल तय करना पड़ता है। टैक्सी यहीं रह जाती है। समुद्र तल से 13 हजार 200 फीट की उंचाई पर स्थित नाथुला में तापमान 0 डिग्री सेल्सियस से नीचे रहता है। बर्फीली हवाएं हमेशा चलती रहती हैं। यहां आक्सीजन की कमी के कारण सांस की तकलीफ हो जाती है। जिन्हें सांस की तकलीफ हो उन्हें इस जगह नहीं आना चाहिए। वैसे आक्सीजन साथ लेकर यहां आया जा सकता है। सामान्य व्यक्ति पापकार्न और बंद गोभी की सब्जी खाकर अपने शरीर को गर्म रख सकते हैं।
नाथू ला से चीन की सीमा लगी हुई है। इस स्थिति में भी सीमा पर देश की पहरेदारी करते जवानों को देखकर हमार सिर अनायास ही श्रद्दा और देशभक्ति से झुक जाता है। यहां चीनी सैनिकों से मिलकर बातें कीं। उनके शिष्टाचार ने हमें काफी प्रभावित किया। ऐसा लगा मानो दिल से जुड़ने के लिए सीमा कोई मायने नहीं रखती। बस प्यार ही बहुत है। चंद दिनों की अविस्मरणीय छवियों के साथ हम लौट पड़े अपनी कर्मभूमि रायपुर के लिए।
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श्रीमती नीता-विवेक भोई
महावीर नगर, रायपुर