Monday, October 13, 2008

शहरोज के लिए


शहरोज के लिए

अपनी शर्तों पर
नौकरी की बात
तुम्हारी हर अनुपस्थिति
पर बरबस आ जाती
है याद...
शहरोज
नौकरी और अनुबंध
जमता नहीं
शायद हम खुशफहमी
में छिपा लेते हैं
कछुए सा सिर
शुतुरमुर्ग सा दबा
लेते हैं चोंच
डेस्क में जब भी
मिलते हो शेर के साथ
अनुबंध ही तो
बंधा रहता है
तुम्हारी आंख तोड़ू और
हाथ फोड़ू(उल्टा)
कविता इसी नौकरी ने
ही जन्माए हैं
सच कहो
कविता छपने की खुशी
तुम्हारे नौकरी मिलने
से कम थी क्या?
क्या लिख पाते हो
अपनी शर्तों पर कविता?
कविता और नौकरी
खबर और अखबार
हमारे चोंच तो नहीं
जिन्हें छिप जाना है
समय पाकर
जबकि उस समय
उसकी यादा जरूरत हो
बिल्कुल उसी तरह
जब तुम छुट्टी मार लेते हो
अपनी शर्तों पर..
इन शर्तों का जवाब
भी तो देना पड़ेगा
दने होगी सफाई
देना होगा उत्तर
संसद में धमाचौकड़ी
मचाते प्रश्नों की तरह
क्या ये शर्त
तुम्हारे आकाश और जमीं
के मिलन का खुलासा तो नहीं
जहां अपने-अपने
आकाश पर तुम और मैं
हाँफ रहे हैं
अपनी शर्तों पर



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