Wednesday, December 31, 2008

कविता पर तनाव

दिन: 21 नवंबर 2008 # समय: 12 बजे दोपहर #  स्थान: बसना

छत्तीसगढ़ में शायद पहली बार किसी कवि की कविता पर तनाव की स्थिति पैदा हो गई। पेशे से शिक्षक कवि बद्रीप्रसाद पुरोहित की कविता सरायपाली के एक अखबार में छपी थी। बसना, सरायपाली और पिथौरा क्षेत्र तक सीमित अखबार छत्तीसगढ़ शब्द में आखिर ऐसा क्या था कि मुस्लिम समाज के कुछ युवकों ने उन्हें स्कूल से बाहर बुलाया और मारपीट की।
बकौल कवि के अनुसार उनका उद्देश्य किसी धर्म का अपमान नहीं था। यदि किसी को इससे ठेस पहुंचती है तो माफी मांगते हैं लेकिन यह समुदाय पुलिस में मामला दर्ज करने पर अड़ा रहा। आखिर मामला दर्ज किया गया। इसके बाद तो मामला सांम्प्रदायिक रंग लेने लगा। हिंदू सेना ने दूसरे पक्ष पर कार्रवाई न करने के पुलिस के रवैये पर बंद का आह्वान कर डाला। वे युवक जिन्होेंने मारपीट को अंजाम दिया था कि गिरफ्तारी की मांग करने अल्टीमेटम दिया। अल्टीमेटम से पहले युवकों को गिरफ्तार कर जमानत पर भी छोड़ दिया गया। अब मामला शांत हुआ। पुलिस ने दोनों पक्षों पर कार्रवाई की है।
यह तो हुई घटना और प्रशासनिक कार्रवाई। इस घटना के बाद एक प्रश्नचिह्न बना हुआ है कि आखिर कविता के स्वरूप पर फैसला कौन करेगा। क्या किसी कवि की भावनाओं पर नियंत्रण पहले से तय किया जाना चाहिए।
कविता का स्वरूप, शब्दरूप, शब्दार्थ, निहितार्थ और लक्षणार्थ कौन तय करेगा। क्या अदालत तय करेगी कि यह उचित अथवा अनुचित है।
जिस तरह रूप को देखकर किसी लड़की के चेहरे को देखकर सबसे पहले दुल्हन का आंकलन किया जाता है, गुण की अवहेलना की जाती है। ठीक उसी तरह क्या कविता का भी आंकलन किया जाए।
कविता की समझ लोगों को कितनी होती है और उक्त कविता को पढ़ने और समझने वालों का मापदंड क्या हो?
कविता वह हो जो आसानी से समझ में आ जाए, अन्य अर्थ या भ्रम की गुंजाइश कम से कम हो पर किसी कविता के लाखों अर्थ निकाले जा सकते हैं तब क्या होगा?
बद्रीप्रसाद पुरोहित की कविता जिससे मचा बवाल

क्या यह अल्लाह की ही मर्जी थी
कि वो सिरफिरे
अल्लाह के नाम पर भरे बाजार में
रख दें बम व उसके विस्फोट में
या अल्लाह की गुहार लगाते
सैकड़ों लोग हो जाएं हताहत
सचमुच यदि यही अल्लाह
की मर्जी थी
(लोग भी तो यही कहते हैं कि अल्लाह
की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता)
तो मुझे पूरी हिकारत और शिद्दत
के साथ अल्लाह के लिए
लानत भेजने दिया जाए।

_____
-डॉ. निर्मल कुमार साहू, रायपुर

Thursday, October 23, 2008

ताज को देखकर


ताज को देखकर

मृत्यु
प्यार के ढाई आखर
के ही बराबर
डूबकर
जिसमें पाया जा सकता
सौंदर्य, शिव, सत्य
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उजली पांखों को
झटक, फेंक दी
हंस ने एक अदद
पंख
लगा जीवन को एक
नया पंख मिला
-----
संगमरमरी देह
संगमरमरी कब्र
संगमरमरी प्रेम
संगमरमरी याद
इतिहास के पन्ने
कब तक भरेंगे
कब तक रचेंगे
अपना ताजमहल
शायद
नूरजहां और शाहजहां
जब तक हृदय में हों,
मौत कब हुई इनकी
लगत है ताज का
हर कोना
प्रेम में एक नया
जीवन उंडेल देता हो
------
यमुना नहीं मरी अब भी
राधा-कृष्ण भी
प्रेम की नदी जब तक
हृदय में बहती रहेगी
हर पात्र रहेगा
जिंदा
मौत भी आंसू बहाती है
तब खुशी से
जीतकर भी जिसे
जीत न पाया

------
प्रेम करने वाले
ढूंढते नहीं सुबह
अभिसार के चिह्न
जिस दिन
पा लेते हैं
ललाई आंखों में
अभिसार के लक्षण
मौत होती है उनकी
----

चिंतन


चिंतन

बीज ने छोड़ा केंचुल
तन गया बनकर अंकुर
मानो दीर्घतपी सा
एक पैरों पर खड़ा
जीवन और मृत्यु
पर
कर रहा चिंतन

कविता


कविता
आदमी के जिंदापन
का सबूत
अंधेरे सूनेपन में
उजली सी धूप
उद्दाम यौवन की
मिष्ठातिक्त स्वाद
बूढ़े मन की
गदराई याद
नहीं केवल
शब्द
अर्थों के पार
अधरों के तट
बहती बयार..

नदी

नदी

पकी हुई बालियों को देख
सूख रही
नदी ने किया महसूस
अब भी उफान
पूरे जोरों पर है
00
नहीं चाहती गंदला होना
यह तो नियति है उसकी
कि उठान से झलान तक
गुजरते
पथरीली चट्टानों से
टकराते
कट जाते हैं तटबंध
उफान भी तो
बरसन के घनत्व पर,
कब चाहा उसने
ढोए शवों को
बस रच दी गई
नंगी मर्यादा ढोने को
बना दी गई गंगा।
पर हां,
तभ भी गढ़ती है
नदी
एक नया द्वीप
बहती हुई,
ठहराव पर पवित्रता
स्वच्छता को देख
होते हैं तृप्त
अधर सूखे लिए
गंदला कौन?

Monday, October 13, 2008

ढेला


ढेला
-क्या नाम है तुम्हारा?
-ढेला
-कहां रहती हो?
- नहीं पहचान रहे हो मुझे?
-पहचानता तो क्यों पूछता?
-यहीं तो रहती हूं, कृपा की लड़की हूं।
-अच्छा, अच्छा..., सुखवंतीन से छोटी हो? तुम्हें तो पहचान नहीं पाया। कितनी बड़ी हो गई हो। तुम्हारी शादी किस गांव में हुई?
- बानबरद ससुराल है मेरा।
-कब से आई हो यहां?
-तीजा पोरा के समय
-तभी से यहीं हो, नहीं गई?
- वो लेने आए तभी न।
- वो लेने आएगा तभी जाओगी, अपने मन से नहीं जाओगी?
-कितनी बार तो अपने मन से जा चुकी हूं, इसके पहले साल भी गई थी।
-तब इस साल क्यों नहीं जाओगी?
-क्या कहूं। बहुत मारपीट करता है। सास-ससुर, देनर-ननद सभी दुख पहुंचाते हैं।
-क्यों?
-मत पूछो भइया...। उन लोगों के बारे में। मेरी एक सौत है। जब उसकी गोद हरी नहीं हुई तो मुझसे शादी कर ले गया था। अब मेरे तीन बच्चे हैं। भगवान की इच्छा भी विचित्र है। इसी बीच सौत के भी बच्चे हुए। उसके भी एक लड़का व एक लड़की है। बस यहीं से मेरी तकदीर फूटी। तब से मेरे साथ मारपीट गालीगलौज शुरू हो गया। रात-दिन सभी ने दुख देते हैं। कितना सहूं...। बहुत दिन तक सहती रही जब नहीं बर्दाश्त कर पाई तो जीता-पोरा में आ गई, तब से नहीं गई।
ढेला अपने बारे में धीरे-धीरे सब कुछ बता गई।
-दामाद क्या करता है? मैंने उससे पूछा।
-खदान में काम करता है।
-खेती-वेती नहीं है?
-बस नाममात्र की है।
- उसे जितना मिलता है गुजर-बसर हो जाती है।
-बस, किसी तरह जिंदगी चल रही है।
- फिर अब क्या हो गया?
-मुझसे अब उसका जी उकता गया है, अपने पास नहीं रखना चाहता। तभी तो ये सब नाटक कर रहा है।
-तब, उससे पूछकर एक बार में ही फैसला नहीं कर लेती?
- उससे क्या पूछूं। सब उसी का किया धरा है।
-तब क्या पंचायत बुलाओगी? अपने समाज के पास जाओगी?
- क्या पंचायत, क्या समाज? गरीब का न पंचायत होता है, न समाज। सब पैसेवालों का है। जब उसका मन ही नहीं है मुझे रखने का, तब पंचायत और समाज क्या कर सकते हैं। बस, मेरे दोनों हाथ पैर सलामत रहें। यहीं मेहनत-मजदूरी कर रह लूंगी,पर वहां मरने के लिए नहीं जाऊंगी।
- तू कैसे समझ बैठी है कि वे तुझे मार डालेंगे?
- पिंजरे में बंद पंछी ही मेरा मन समझ सकता है। किस तरह अत्याचारों को बर्दाश्त करते आई हूं। ..... पिंजरे में बंद रहकर दूसरों के भरोसे रहने की अपेक्षा बाहर रहकर जीना च्छा है।
- अभी तुम्हारी उमर ही कितनी है जो ऐसा कदम उठा रही हो? कहीं बाद में पछताना न पड़े? समझ रही हो न बेटी?
- अब जो होना होगा, होगा। पर उस बेर्रा का मुंह नहीं देखना चाहती।
-अरे ऐसा भी कोई अपने पति को कहता है। जिसने तुम्हारे मांग में सिंदूर भरा जिसने चुड़ी पहनाई, जिसका नाम लेकर तुम पैरों में महावर रचाती हो उसी को बेर्रा कहती हो?
- अब वो मेरा क्या, मैं कौन उसकी। मेरे लिए तो वह मर गया। मैं जिस दिन यहां आई थी उसने छुरी निकाल कर गला काटने लगा था कि उसी समय सौत ने आकर मुझे बचा लिया। नहीं तो मैं उसी दिन मर गई होती।
इतना सब बताते-बताते ढेला की आंखों से आंसू निकल पड़े।
वह कहने लगी- भैया, मेरा नाम ढेला है। जिस तरह मिट्टी का ढेला हल्की सी चोट में टूटकर, बिखरकर इधर-उधर फैल जाता है उसी तरह मैं हो गई हूं। मैं कब किधर चल दूंगी कोई ठिकाना नहीं। नारी का जीवन ही ऐसा है भइया...। जब एक बार गिरी तो ठोकर खाते हुए बीत जाता है उसे फिर कहीं भी कोई सहारा नहीं मिलता।
- डॉ. निर्मल साहू
(परमानंद वर्मा की छत्तीसगढ़ी कहानी ढेला का हिंदी अनुवाद)


तमीज


तमीज

बदली गई है आज
गमले की मिट्टी
जड़ों को कांट-छांट।
पौधा हरिया रहा अब भी
बौनापन लिए
खुश हैं कि मिट्टी
कितना कर देती है।
फूल खिलेगा
पर बौनापन
वहीं रहेगा
हर बार काट दिया
जाएगा बढ़ना
कि जिंदा रहना है
तो तमीज सीखो।

अंधविश्वास



अंधविश्वास

सुबह
हर रोज टिफिन कैरियर को
साइकिल में रखकर
निहारती रहती है
तब तक
जब तक आंखों से
ओझल न हो जाए
उसका साइकिल सवार।
शाम
हर रोज
तुलसी बिरवे पर
धूप बाती दे
माथा टेककर
ताका करती है
अनिश्चिंत आशंका से
और घंटी की टिन-टिन
लौटा लाते हैं मुस्कान,
छिन लेती है लपककर
सुबह का टिफिन कैरियर।
उसका माथा टेकन
धूप-बाती देना
भले ही अंधविश्वास कहें आप हम
पर प्रेम का धरातल
घोर गहन अंधविश्वास पर टिका है
शायद प्रेम
इसलिए अंधा होता है।

शहरोज के लिए


शहरोज के लिए

अपनी शर्तों पर
नौकरी की बात
तुम्हारी हर अनुपस्थिति
पर बरबस आ जाती
है याद...
शहरोज
नौकरी और अनुबंध
जमता नहीं
शायद हम खुशफहमी
में छिपा लेते हैं
कछुए सा सिर
शुतुरमुर्ग सा दबा
लेते हैं चोंच
डेस्क में जब भी
मिलते हो शेर के साथ
अनुबंध ही तो
बंधा रहता है
तुम्हारी आंख तोड़ू और
हाथ फोड़ू(उल्टा)
कविता इसी नौकरी ने
ही जन्माए हैं
सच कहो
कविता छपने की खुशी
तुम्हारे नौकरी मिलने
से कम थी क्या?
क्या लिख पाते हो
अपनी शर्तों पर कविता?
कविता और नौकरी
खबर और अखबार
हमारे चोंच तो नहीं
जिन्हें छिप जाना है
समय पाकर
जबकि उस समय
उसकी यादा जरूरत हो
बिल्कुल उसी तरह
जब तुम छुट्टी मार लेते हो
अपनी शर्तों पर..
इन शर्तों का जवाब
भी तो देना पड़ेगा
दने होगी सफाई
देना होगा उत्तर
संसद में धमाचौकड़ी
मचाते प्रश्नों की तरह
क्या ये शर्त
तुम्हारे आकाश और जमीं
के मिलन का खुलासा तो नहीं
जहां अपने-अपने
आकाश पर तुम और मैं
हाँफ रहे हैं
अपनी शर्तों पर



Sunday, October 12, 2008

करील

करील

करील का खट्टापन
उसे बेचती युवती से कम नहीं
तिस पर लावण्य का भार,
लपलपाती आंखे फारेस्टर की
कच्चा चबा जाने की
दु:साहसिकता लिए
भरे बाजार
बेखौफ घूमते
शाम की प्रतीक्षा में,
और शाम हुई एक हत्या
उस भ्रूण की तरह
जो बांस बनने से पहले
करील की शक्ल
में बाजार में थी।
-------


Saturday, October 11, 2008

जीवन

सुबह
जड़ दिए अधरों पर
फिर बासी प्यार
जीवन-समीकरण
में एक नया उधार

शाम
चाय में डूबोकर
प्याली भर मुस्कान
जीवन की देह को
मिल गया अनुदान

रात
मार फूंक ढिबरी को
दिया देह-ब्याज
ऋण दो आपस में
धन हुए आज

मास
प्यार की शर्त पर
नित नए अनुबंध
जीवन के राग में
जुड़ते गए छंद

साल
पड़ाव रहा बदलता
रास्ते जाने-पहचाने
सपन भी थक गए
ढूंढने लगे अफसाने

शून्य
जोड़-तोड़ गुणा-भाग
हिसाब पाप-पुण्य
हासिल बस अंत में
आया केवल शून्य

Saturday, July 26, 2008

कोलता जाति:

में
शोध- डॉ. निर्मल साहू-पुष्पा साहू

कोलता जाति के इतिहास के लिए हमें आर्य सभ्यता से गुजरनाा होगा, अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि यह जाति आर्य, या द्रविड सभ्यता से है। अभी तक इसका मिला जुला स्वरुप ही उभरकर सामने आया है। किंतु अनेकत: मिथकों, प्रसगों से यह सामने आया है कि यह जाति आर्य सभ्यता का अंग था। वर्तमान में यह जाति पश्चिम और मध्य उडीसा तथा छत्तीसगढ में केंद्रित है। इनका आचार -व्यवहार, स्वभाव, परंपरा एवं सस्ंकृ ति बिहार, नेपाल, पूर्वी उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ, ग़ुजरात के कुछ इलाकों, महाराष्ट्र के तटीय इलाकों के निवासियों से मिलती जुलती है। आर्य का अर्थ सुस्कृंृत मानव है। अंगरेजी में से संज्ञायित किया गया है। विश्व इतिहास की अन्य सभ्यताओं यथा, ग्रीक, जर्मनी, पारसी आदि की तुलना में इसे श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। भारतीय स्वयं को आर्य कहकर गौरवान्वित महसूस करते हैं। आर्यों का प्रवेश भारत में अफगानिस्तान से पाकिस्तान होकर आया, वे सिंधु नदी पारकर यहां आए थे जिसके कारण इन्हें कालांतर में हिंदू नाम से पुकारा गया। ये पाकिस्तान के पश्चिम प्रदेश और पंजाब के क्षेत्रों में बसकर इस इलाके को ब्रह्मा से नामित किया। ईसा पूर्व 2500 से 1500 तक आर्य और द्रविड सभ्यताओं में संघर्ष हुआ । द्रविड दक्षिण की ओर जाने लगे, जबकि आर्यों ने गंगा, यमुना के इलाकों में अपना विस्तार शुरू किया इस क्षेत्र को आर्यावत का नाम दिया गया। शोधकों के अनुसार इस काल में रामायण और महाभारत की रचना हुई। इसी काल में आर्य और द्रविडाें का सांस्कृ तिक और सामाजिक मिलन हुआ, वैवाहिक संबंध स्थापित हुए। अनेक समुदायों में विवाह के कारण जाति और उपजाति का आविर्भाव हुआ। इसी काल में ऋग्ग्वेद की रचना हुई ,उपनिषद का आविर्भाव हुआ। इसी कारण इस युग को वैदिक काल भी कहा जाता है। इस काल में चार वर्ण क्षत्रिय,ब्राह्मण , वैश्य और शुद्र की उत्पत्ति हुई। इस समय एक वर्ण का अन्न्य वर्म से वैवाहिक संबंध मान्य था। इसके उपरांत ही संस्कार नाम से जाति प्रथा का प्रचलन प्रारंभ हुआ।
गंगा और यमुना के उपकुलों में निवासरत आर्यर्ों के जीवन यापन का मुख्य साधन कृषि कर्म ही था। पशुपालन और अन्य उत्पादन ही इसकी आजिविका के साधन थे। रामायण काल में मिथिला का साम्राज्य पूर्वी उप्र, बिहार, नेपाल का दक्षिण इलाका और गण्डक क्षेत्र को साफ करके मिथिला राजा जनक ने कृषि योग्य बनाया था। इतिहास विदों के अनुसार वर्तमान मधुबनी, दरभंगा, चंपारण, मोतिहारी और नेपाल की तराई का इलाका भी जनक के साम्राज्य में शामिल था। नेपाल का जनकपुर राजा जनकपुर राजा जनक की राजधानी थी, जबकि उप्र के पश्चिम कौशल राज्य था।
सीता और राम केविवाह के बाद मिथिला और कौशल में सांस्कृतिक और सामाजिक संपर्र्क ज्यादा बढ ग़या। राजा जनक शिव के उपासक थे। सीता विवाह के उपरांत भगवान राम ने शिव और पार्वती आराधना प्रारंभं की। आज भी मधुबनी जिले के झनझारपुर के पास स्थित एक मंदिर में स्थापित शिव पार्वती को रणेश्वर रामचंडी नाम से पूजित किया जाता है।
वैदिक युग में ही ऋषि, मुनियों, शासकों में शक्ति सम्पन्नता का भाव उभरने लगा। ब्राह्मण वर्ण प्रथा कठोर होने लगी, समुदाय विखंडित होने लागा। ब्राह्मणों की कुनीतियों के विरूध्द क्षत्रियों ने संघर्ष किया। इसके उपरांत महावीर और गौतम बुध्द ने अपने धर्ण का प्रत्रचार प्रसार किया। गौतम बुध्द के समय तक मिथिला नरेश के वंशधर और क्षत्रिय गंगा के किनारे, असम और उत्तरपूर्व ब्रह्मपुत्र के मैदानों तक विस्तार कर चुके थे। मध्य बिहार में जनसंख्या के दबाव से कृषि क्षेत्रों में अबाव प्रारंभ हो गया। क्षत्रियों का एक समुदाय उडीसा की अग्रसर हो गया। ब्राह्मणी नदी पारकर ये वर्तमान सुंदरगढ, अनगुल, ढेंकानाल, कटक, पुरी क्षेत्र में जाकर बस गए। जिन्होंने नदी किनारे रहकर खेती करना शुरू किया। उन्हें कुलता चसा और जिन्होंने नही से दूर रहकर खेती प्रारंभ किाय उन्हें साधारण चसा के नाम से पुकारा जाने लगा। संभवत: इस प्रकार से कुलता और चसा दो अलग जातियां अस्तित्व में आ गईं। कलिंग आक्र्रमण के समय मगध के जो सैनिक यहां बसकर कृषि कार्य करने लगे खंडायत के नाम से जाने गए। अशोक के शासनकाल में इन पर बौध्द तथा ब्राह्मणों का प्रभाव ज्यादा पडना स्वाभाविक था फलत: खंडायत की सामाजिक, सांस्कृतिक परंपराएं कोलता और चसा की तुलना में भिन्न रहीं। उडीसा के साथ दक्षिण भारतीय का सांस्कृतिक सामाजिक संबंध पडा जबकि कोलता और चसा की बोली के साथ मैथिली और मगही का सामंजस्य अधिक दिखाई देता है। कृषि भूमि के अभाव से यहां कोलता जाति ने बौउद, बलांगीर, कालाहांडी, सुंदरगढ अौर छत्तीसगढ में विस्तार किया। मैथिली और मगही के साथ उस स्थान के आदिवासियों और संप्रदाय की बोली के मिश्रण से बोली का जो नया स्वरुप उभरा उसे वर्तमान में संबलपुरी कहा जाता है।
जाति का मूल स्वरुप:
यह जाति मूलरुप से चंद्रद्रवंशी क्षत्रिय जनक के वंशधर हैं। मिथिला से दक्षिण बिहार होकर उडीसा में आकर कोलता, चसा और खंडायत नाम से पुकारे जाने लगे। धीरे-धीरे इनमें संपर्र्क घटा। आजीविका के अभाव ने इन्हें अन्य क्षेत्रों की ओर पालयन के लिए मजबूर किया जिससे इनमें भिन्नता मिलने लगी हालाकि संपर्र्क न होते हुए भी इनके पूजा पाठ, विवाह , परंपरा सामजिक रीतियां समान हैं। इनमें मध्य बिहार के क्षत्रियों और मैथिली परंपरा का स्पष्ट प्रभाव है।
बौध्द और शैव संप्रदाय का प्रभाव
अनुमान लगाया जाताहै कि 250 ईसवी से एक हजार के मध्य पश्चिम उडीसा में स्थापित कई मंदिर उत्तर भारत से आए क्षत्रिय समाज द्वारा निर्मित है। बौध्द धर्म का प्रचार बउद, गाइसलेट (गनियापाली) व पश्चिम उडीसा तथा पूर्वी छत्तीसगढ ऌलाके में होने के प्रमाण मिलते हैं। आज भी इस जाति पर बौध्द धर्म के अवशेष किंचित रूप से विद्यमान हैं। यथा: इस जाति के लोग ब्राह्मण या अन्य हिंदू जैसे कट्टर नहीं हैं। महिलाओं के पहनावे में भगवा वस्त्र का चलन अब भी है। विवाह संस्कार में पहले ब्राह्मण द्वारा संपादित नहीं होते थे यह परंपरा कुछ ही वर्षर्ों से प्रारंभ हुई है।
कोलता और गुप्तवंश
चौथी शताब्दी में गंगेय उपत्यका (गंगा क्षेत्र) में नूतन राजवंश का उत्थान हुआ। इस वंश के संस्थापक राजाओं में चंद्र्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त विक्र्रमादित्य थे। अनुमान के अनुसार गुप्त वंश मूलत: राजा जनक के वंशधर थे। चंद्रद्रगुप्त द्वितीय के समय चीनी यात्री फाह्यान ने भारत भ्रमण किया। संभव है कि फाह्यान के साथ भ्रमण पर निकले गुप्त वंश के कुछ क्षत्रिय उडीसा भ्रमण के दौरान कुछ इलाकों में अपना समानांतर राज्य स्थापित किए हों और उनकेवंश कुलता, चसा और खंडायत जाति से प्रतिष्ठित हुए हों। यह ध्यान देने योग्य है कि गुप्त वंश में विष्णु और शिव दोनों की उपासना की जाती थी। शिव दुर्गा की मुद्रा में रणेश्वर रामचंडी कार्तिकेय की प्रतिमाएं आज भी मंदिरों में दिखाई देती हैं।
चौहान काल से संबंध
मरहट्टा और चौहान वंशीय राजाओं के आगमन के बाद पश्चिम उडीसा में काफी परिवर्तन आया। इन राजाओं के आगमन के बाद वहां का क्षत्रिय वर्ग इनकेअधीन होकर सैनिक धर्म निर्वहन के बजाय कृषि कर्म की ओर उन्मुख हुआ। राजा को कर देकर प्रजा के साथ रहना पसंद किया। अधिक से अधिक इन्होंने गांव का प्रमुख होना स्वीकार किया। संभवत: यही क्षत्रिय वर्ग वर्तमान कोलता जाति का मूल उद्गम है। प्रधान जैसे आदरसूचक संबोधन बाद में जातिसूचक बन गया हो।
कोलता की उत्पत्ति
ऐतिहासिक विश्लेषण
कोलता शब्द की उत्पत्ति पर विभिन्न मान्यताएं सामनेर् आईं हैं। कुछ तथ्यगत प्रमुख रूप से सामने आता उनमें यह है कि- कुलु उपत्यका से आकर स्थापित होने से इनका नाम कुलता पडा। दूसरा-आठ मल्लिक इलाकों से महानदी के किनारे (कुल) से बउद इलाके में आकर बसने के कारण कुलता नामकरण, तीसरा- नदी के किनारे रहने के कारण, इनके प्रकृति प्रेम के कारण इन्हें कुलता कहा जाता था। बउद क्षेत्रमें जाकर रहने से इनका नामकरण कुलता के रूप में स्थापित हो गया। चौथा- वैदिक काल में परिवार को कुल तथा उसके मुखिया को कुलपा कहा जाता था। बौध्द परिवार में कुलपा का निर्णय अंतिम होता था। उसका फैसला मानने के लिए परिवार के सभी सदस्य बाध्य थे। आदेश का उल्लंघन करने वाले को कठोर सजा दी जाती थी। उत्तरोत्तर जाति प्रथा के विकास के साथ विभिन्न जाति का कुछ प्रभावशाली कुलपा ने अलग समुदाय बनाया संभवत: यही कुलपा अपभ्रंश होकर कुलता हो गया होगा जिसका वर्तमान स्वरूप कोलता-कुइलता रूप में उभरा हो।
-
कृषि भूमि के अभाव से यहां कोलता जाति ने बौउद, बलांगीर, कालाहांडी, सुंदरगढ अौर छत्तीसगढ में विस्तार किया। मैथिली और मगही के साथ उस स्थान के आदिवासियों और संप्रदाय की बोली के मिश्रण से बोली का जो नया स्वरुप उभरा उसे वर्तमान में संबलपुरी कहा जाता है
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उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्य
कृषि व्यवसाय में संलग्न कोलता जाति का उड़ीसा और पूर्वी छत्तीसगढ में आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्टभूमि में महत्वपूर्ण स्थान है। उडीसा में अन्य जाति चसा, खंडायत, सूद और डूमाल के जीविकोपार्जन का भी मुख्य आधार कृषि है। अब तक यह मान्य और ऐतिहासिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि ये जातियां उत्तर बिहार के मैथिल प्रांत, नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र और उत्तरप्रदेश से उडीसा में आए। कुछ शोधार्थियों का मत है कि कोलता और खंडायत उड़ीसा में अशोक के शाससनकाल में आए और बाद में यहां विभिन्न प्राताें में स्थापित हो गए। दूसरी और 8 वीं शताब्दी में इन्हाेंने विभिन्न अंचलाें में शिव मंदिर का निर्माण कराया था। दक्षिण भारत से मराठों के आगमन केबाद इनकी सत्ता खोने लगी ओर ये कृषि व्यवसाय की ओर मुड़ गए। हालांकि इस संधध में प्रमाणिक रूप से कोई साक्ष्य नहीं है। ब्रिटिश शासन के पूर्व इस सम्प्रदाय-जाति के बारे में कोई दस्तावेज नहीं मिलता। ब्रिटिश साम्राजय के दौरान अंग्रेज इतिहासकाराें, अफसरों, कलेक्टरों ने जरूर लिखा। इन लेखाें से हमें कोलता जाति पर समग्र रूप से देखने को कुछ नहीं मिलता, फिर भी शोधार्थियों, जिज्ञासुआें के लिए यह लेख एक तथ्य का मार्गदर्र्शन करते हैं। इनमें कुछ राजपत्र प्रमुख हैंै जो शोधार्थियाें, जिज्ञासु पाठकाें के लिए लाभभप्रद व रूचिकर हो सकते हैंै।
राजपत्र जिला सब डिवीजन
बोनाई सब डिवीजन में कोलता समुदाय एक प्रतिस्थापित और प्रमुख कृषक वर्ग है। इनकी गणना भू स्वामित्व रूप से समृध्द और प्रमुख रूप से होती है। ये 13 वीं शताब्दी के रामानंद संप्रदाय और वैष्णव संप्रदाय के अनुयायी हैं। ये राधाकृष्ण की पूजा करते हैं। मूलत: ये मिथिला से संबलपुर आए और बाद में यहां आकर बस गए। इस जाति के संबंध में कोलोनेल डाल्टन ने अपनी किताब में लिखा है- ये संबलपुर और बोनाई में कृषि रूप से समृध्दशाली और प्रमुख रूप से स्थापित हैं? ये सर्वोत्तम कृषक के रूप में पाए जाते हैं। मैंने पाया कि इनके खेत उवर्रामय, साफसुथरे और घर आरामदायक मिले। मैं स्पष्ट रूप उनके घरों में जाकर यह सब पाया, उनकी महिलाओं व बच्चों से मिला। वे मेरे टेंट में आए और मेरे पास बैठे भी। महिलाएं पर्दा प्रदा से पूर्णतया अनजान थीं। इसमें कोई शक नहीं कि ये आर्यर्ों के उत्कृष्ट अंश हैं। जहां तक मैं सरसरी तौर पर सोचता हूं यह निश्चित पाता हूं। आदिवासी जातियां अधिमिश्रित व चारूपूर्ण होती हैं। इनके रंग काफी से लेकर पीतवर्ण के होते हैं। चेहरा अपेक्षाकृत बडा और सुंदर, आंखें सामान्यत: बडी, साफ नाक नक्शा। मैंने विशेष रूप से यह निरीक्षण किया कि कई संदर साफ शरीरों वालों की भौंहें सुंदर थी,पलक लंबे-लंबे थे। उनके नाम टेडे मेडे नहीं थे, किंतु उसमें परिभाषा योग्य कोई वैशिष्टय नहीं था। उनका माथा सीधा, सरल और हृदय मंदिर की तरह सहज था। वे सामान्यत: औसत हिंदू हैं। ये अपनी पुत्री का विवाह बालिग होने पर ही करते हैं।
ढेंकानाल राजपत्र
जिला राजपत्र 1908 में ओ मेले ने लिखा है: ढेंकानाल चसा बाहुल्य है। 1908 में इनकी संख्या अंगुल सबडिविजन में 40 हजार थी। कोल्डेन रामसे ने फ्यूडकटोरी स्स्टेट इन ओडिसा, 1908-इनकी जनसंख्या अथमलिक में 8 हजार, ढेंकानाल में 51 हजार 116, हिंडाले में 11 हजार,पाल लहरा में 5 हजार और तालचेर में 17 हजार थी। ये विभिन्न भागों में कई वर्गर्ों और नामों से जाने जाते थे। जैसे: पंदसरिया,कुलता, ओडा। खंडायत विवाह के समय जनेउ धारण करते थे और इन वर्गर्ों में स्वयं को श्रेष्ठ मानते थे तथा अन्य वर्गर्ों में जनेउ धारण नहीं किया जाता था। ये एकवर्ग गोत्र में विवाह नहीं करते लेकिन मां के परिवार से इनका विवाह होता है। अविवाहित को दफन किया जाता है जबकि विवाहित का अग्नि संस्कार होता है।
बौउद-खंडामाल राजपत्र
कोलता जाति अयोध्या से आकर यहां बस गई है। बौउद के राजा को पटना के राजा से अपनी बेटी के दहेज स्वरूप डूमाल का एक परिवार और कोलता का चार परिवार भेंट किया था। ये चार परिवार थे- प्रधान, साहू, नायक और बिस्वाल। इसके अतिरिक्त भोई भी इस जाति में पाए जाते हैं। इनके जीविकोपार्जन का मुख्य साधन खेती है। इनमें से कई काफी धनी हैं। सरकार और जगती इनका प्रमुख केंद्र है। हनुमान इनके अधिष्ठाता देव हैं। चसा और कोलता में वैवाहिक समानताएं मिलती हैं और इनमें वैवाहिक संबंध स्थापित हो भी रहे हैं। कुछ बौउद से संबलपुर के विभिन्न भागों में जाकर बस गए हैं जो वहां सरसरा कोलता और जगती कोलता के नाम से जाने जाते हैं।
कालाहांडी राजपत्र
कोलता समुदाय उडीसा के उत्तर पूर्व संबंलपुर से आकर यहां बस गए थे। 1867 में राजा उदित प्रताप देव ने संबंलपुर की राजकुमारी से विवाह किया। भेंट स्वरुप संबलपुर के राजा ने इन जाति के लोगों को भी दिया। इस जाति के लोग तालाब बनाने में दक्ष और कृषि कार्य में निपुण थे जिसकी जरूरत राजा को थी । इस जाति के लोग धार्मिक, सामाजिक कार्यर्ों का संपादन ब्राह्मणों से करवाते हैं। यह जाति सामाजिक रूप से अन्य जातियों से साम्य रखती है।
संबलपुर राजपत्र
संबलपुर के तात्कालीन कलेक्टर मि. हामिद ने अपने सर्वे सेटलमेंट रिपोर्र्ट में इस जाति का उल्लेख किया है। मि. हामिद ने इस जाति का सामाजिक एवं आर्थिक व्यौरा पेश करते हुए लिका है कि सि जाति के लोग कृषि के मेरूदंड हैं। सिंचाई का भरपूर दोहन करने वाली,बेहतर तालाबों का निर्माण करने वाली यह जाति अपनी भूमि को सदैव उर्वरामय बनाए रखती है। घोर परिश्रमी यह जाति गरीबी की मार झेल रही है। वर्तमान में यह समुदाय उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर है।
इस जाति के बारे में कहा जाता है कि ये बौउद राज्य से आकर बस गए । किवंदति है कि रघुनाथिया ब्राह्मणों के आग्रह पर राजा राम ने इन्हें उडीसा जाकर बसने का निर्देश दिया था क्योंकि इन ब्राह्मणों को कृषकों की जरूरत थी। एक किवंदति यह भी है कि राजा राम वनवास के समय तीन भाइयों से मिले और उनसे पानी मांगा। पहले ने कांसे के बर्तन में पानी दिया तो सूद कहलाया, दूसरे ने पत्ते में दिया तो डूमाल कहलाया और तीसरे ने पत्थर से बने पात्र में दिया तो कुलाता कहलाया। इस तरह से सूद, डूमाल और कुलता तीन वर्गर्ों में जाने गए।
एक मिथकिय परिकल्पना भी इस जाति से जुडी हुई है। जिसके मुताबिक वनवास के समय एक कोल को पानी लाते देखते हुए राजा राम ने पानी मांगा। गरीब कोल ने पत्थर के पात्र में पानी दिया। पानी पीकर खुशी से सीता ने एक अधखाए फल को फेंका जो एक युवती के रूप में परिवर्तित हो गई जिसे कोल को उपहार स्वरूप राम ने प्रदान किया। इस युवती से उत्पन्न जितने भी भी संतानें हर्ुईं कोलता के नाम से जानीर् गईं। कोल-लिता(जूठन, बचा हुआ) के संसर्ग से उत्पन्न हुए हैं कोलिता- कोइलता-कुइलता।
देश के अन्य भागों में कोलता जाति
कोलता जाति क्या वर्तमान में उडीसा, छत्तीसगढ में ही है या देश के अन्य भागों में यह एक स्वत: जिज्ञासा है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, व इंटरनेट पर टटोलने पर मिला कि उत्तराखंड में कोलता जाति विद्यमान है। इनका संबंध यहां की कोलता जाति से है या नहीं, यह शोध का विषय है। वैसे कोलता जाति के उद्गम स्थल उप्र, बिहार, नेपाल का सीमावर्ती क्षेत्र होने के तथ्यों को देखते हए लगता है कि कहीं न कहीं से इनसे संबंध है। कोलता जाति के मूल स्वरूप कहीं यही तो नहीं हैं। इनकी आजीविका का मुख्य साधन कृषि ही है। फर्र्क केवल इतना है कि वे वहां आज भूमिहीन हैं, दूसरे के खेतों में काम करते हैं, बंधुआ मजदूर के रूप में जीनव-यापन करते हैं।
थीम्पू भूटान में आयोजित माउंटेसन वूमन कांफरेंस 2002 में पढे ग़ए शोध आलेख का यहां जिक्र्र इस संदर्भ में कुंवर प्रसूम और सुनील कैथोला ने अपने शोध आलेख में लिखा है- यह जाति भूमिहीन है। ये यमुना और चोंस नदी के किनारे आसपास के क्षेत्रों में बसे हैं। इनकी स्थिति बंधुआ मजदूरों जैसी है। गरीबी इतनी है कि महिलाएं देह व्यापार में लिप्त हैं। लडक़ियों को बेचा जा रहा है। अछूत माने जाने वाली यह जाति तीन वर्गर्ों में है। पहला खंडिच-मंडित - ये दूसरों के खेतों में काम करते हैं पर स्वतंत्र हैं। दूसरा, बात- ये बंधुआ मजदूर हैं। एक परिवार की कई पीढियां बंधुआ मजदूरी करते पाई गई हैं। तीसरा, संतायत-ये भी कृषकों की सहायता करते हैं, खेतों में काम करते हैं। ये शोध आलेख के प्रमुख अंश हैं। जिसमें नदी किनारे रहने की प्रवृत्ति , कृषि से संबंध, कहीं न कहीं मन को उद्वेलित करता है। यह शोध का विषय बन सकता है। सांस्कृतिक , धार्मिक रहन-सहन के परिपेक्ष्य में जानकारियां एकत्र कर इसकी तह तक जा सकते हैं।
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कोलता : नामकरण-एक विवेचन
प्रस्तुत लेख में प्रकट किए गए विचार समाजशास्त्रियों एवं सामाजिक शोधकर्ताओं की जिज्ञासा को उत्प्रेरित करने के उद्देश्य से प्रस्तुत किए गए हैं। लेखक की यह कदापि अपेक्षा नहीं है कि पाठक उसके विचारों से सहमति प्रकट करे। इतिहास, किंवदंति एवं भाषाशास्त्र के समन्वय से शाब्दिक विवेचन का यह प्रयास संभव है ताकि भविष्य में एक ठोस, प्रामाणिक एवं विश्वस्त धरातल का निर्माण हो सके। : चंद्रमणि प्रधान
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कोलता एक जाति विशेष का प्रचलित नाम है जो छत्तीसगढ़ के पूर्वी अंचल एवं उड़ीसा के पश्चिमांचल में बहुसंख्यक रुप से निवास करती है। कोलता शब्द छत्तीसगढ़ का है जो पूर्ण रुप से अपभ्रंश है। विगत वर्ष उड़ीसा के सुंदरगढ़ जिले में चक्रा स्थान पर अखिल भारतीय इस जाति के सम्मेलन में सर्वसम्मति से स्थिर किया गया कि इस जाति का सही नाम कुलता है कोलता नहीं। उड़ीसा में कोलता शब्द को कोई मान्यता नहीं है। किंतु मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के शासकीय अभिलेखों में कोलता शब्द ही इस जाति का बोधक होने के कारण कोलता शब्द से नाता नहीं टूट सकता। अत: अखिल भारतीय समाज ने छत्तीसगढ क़े लिए कोलता शब्द का व्यवहार जारी रखने की अनुमति प्रदान की है। साथ ही यह भी कि यहां के समाजिक संगठन कोलता के स्थान पर कुलता शब्द लाने के लिए शासन से आवश्यक संपर्क स्थापित कर नियमानुसार आवश्यक कार्रवाई करें।
इस जाति का मूल और सही नाम कुलता ही है, यह भी प्रामाणिक रुप से नहीं कहा जा सकता। यद्यपि इस नाम को स्वीकृति मिल चुकी है फिर भी जनभाषा में इसे क्विलता अधिक कहा जाता है। कही सुनी कुलिता और कुल्तिया नाम से भी इसे पुकारा जाता है। मुझे स्मरण है जब मैं सात-आठ साल का था एक बहुत बूढ़े पंडितजी मुझे कुल्तिया कहकर पुकारते थे। चूंकि वे ग्रामीण रिश्ते में मेरे दादा लगते थे मैं उनकी पुकार को एक मजाक ही समझा करता था, परन्तु आज यह आभास होता है कि कोलता का एक नामकरण कुलतिया भी कभी रहा होगा अत: इस जाति का आदि नाम क्या था यह कह पाना आज तो निश्चित रुप से विवाद की सृष्टि कर सकता है फिर भी जातियों के नामकरण की पध्दति और पृष्ठभूमि का अध्ययन संभवत: समस्या के निदान में सहायक हो सके, इसलिए विभिन्न जातियों के नामकरण पर कुछ विचार अवश्य महत्वपूर्ण होगा। भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता युगों पुरानी वर्ण व्यवस्था है। यही वर्ण व्यवस्था आगे चलकर जातियों के निर्माण की मुख्य कारक रही है। कर्म ही वर्ण व्यवस्था की आधारशिला थी। कर्म के अनुसार ही मनुष्य का वर्ण निर्धारित होता था परन्तु धीरे-धीरे कर्म की महत्ता समाप्त होकर जन्म वर्ण का आधार बनने लगा। व्यक्ति के कार्य, व्यवसाय, रुचि, दक्षता को ध्यान में रखकर वर्ण का का विभाजन जातियों में होने लगा और देश में जाति प्रथा का जन्म हुआ। सदियों से देश में विभिन्न प्रकार की जातियां बड़े समन्वित और प्रेमभाव से इस देश में निवास करती आ रही हैं। आज भी यह जाति प्रथा इतनी गहरी समाई हुई है कि इसका उन्मूलन कर पाना संभव नहीं हो सका है। जातिप्रथा के विरोध में स्वर तो बहुत उठते हैं परन्तु आज तक जाति प्रथा के विरोध में कोई आंदोलन प्रारंभ ही नहीं हो सका है बलिक विभिन्न जातियां अपनी संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज की सुरक्षा के लिए सशक्त संगठन बनाई हुई हैं। वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म रहा है तो जातियों का विभाजन भी उनके कर्म और व्यवसाय के अनुरुप ही हुआ है। जातियों का विभाजन ही नहीं उनका नामकरण भी उनके कार्यों और व्यवसायों के आधार पर हुआ है। अनेक ऐसी जातियां हैं जिनका नाम लेते ही उनके कार्य का पूर्ण बोध होता है। नाई ,धोबी, केंवट, कुम्हार, तेली, कोष्टा, धीवर आदि जैसे नाम उनके कार्य आजीविका का बोध करा देते हैं। आज परिस्थिति बदल चुकी है। आवश्यकता और विकास ने इन सभी जातियों को अपना जातिगत व्यवसाय छोड़ने पर विवश किया है और ये सभी जातियां अन्य कर्म और व्यवसायों में पर्याप्त रुप से दक्षता हासिल कर चुकी हैं, चाहे ये जातियां अपना मूल कार्य करें, ये अपनी जातीय परम्पराओं का निर्वाह बड़े गर्व के साथ करते हैं।
भारत एक कृषि प्रधान देश है और भारत की सबसे बड़ी जाति कृषकों की है। देश गांवों में बंटा है और गांवों में अधिकांश जनसंख्या कृषकों की ही रही है, कृषि ही मुख्यकर्म रहा है। परन्तु विडम्बना यह है कि भारत में कृषक या किसान नामक कोई जाति नहीं है। यदि छत्तीसगढ़ एवं पश्चिम उड़ीसा जो कभी कोशल प्रदेश था, की बात करें तो यहां का भी मुख्य कर्म कृषि ही है और यहां भी कृषक नामक कोई जाति नहीं है। इस क्षेत्र में सदियों से जो लोग खेती करते आ रहे हैं उनकी जाति का नाम भिन्न-भिन्न है। कोलता या कुलता एक कृषक जाति है उसका मुख्य कर्म खेती है। उड़िया में कृषि को चास कहा जाता है और वहां प्रत्येक कृषक अपने को चासी कहता है। कुर्मी, लोधी भी कृषि जातियां हैं। अघरिया कृषि जाति है। इन कृषक जातियों का नामकरण यह बोध नहीं कराता कि वे कृषिकर्मी हैं जैसा कि अन्य जातियों से प्राय: होता रहा है। अत: यह प्रश् विचारणीय है कि सारे देश में कृषक जातियों ने अपनी जाति का नाम का आधार किसे माना? भिन्न-भिन्न कृषि कर्मियों की जाति का नामकरण शोध का विषय है।
कुलता कृषि जाति है, उड़िया में चासी है। चासी का दूसरा नाम चसा भी है। कृषि के लिए उर्वरा भूमि और जलस्त्रोत की आवश्यकता होती है। कृषक ऐसे स्थान को पसंद करता है जहां भूमि उपजाऊ हो और आवश्यकता पड़ने पर सिंचाई के लिए पर्याप्त जल मिल सके। ऐसे स्थान प्राय: नदी के किनारे या कछार हुआ करते हैं। उड़िया में नदी के किनारे को कुल या खंड कहा जाता है। किसानों की पहली पसंद नदी का किनारा हुआ करता है। कोशल प्रदेश में विशेषकर उड़ीसा में कृषकों की बस्तियां नदी,नालों के किनारे ही प्रारंभ में बनी। यहीं पर चासी रहकर चास किया करते थे। इन चासियों के साथ अन्य जातियों के लोग भी कृषि कार्य में सहायता करते थे। कुलता जाति भी इन्हीं ग्रामों में रहकर कृषि करती रही है। यह जाति कृषि कार्य में अत्यधिक उन्नत रही है। कृषि में श्रेष्ठता इस जाति की अब भी विशेषता रही है। उड़िया भाषा में गांव के प्रमुख असरदार व्यक्ति को गडतिया कहा जाता है उसी प्रकार जैसै गढ़ी के मालिक को गढ़तिया। अत: नदी नालों के कुलों में जो श्रेष्ठ जाति निवास कर खेती करती थी उसे कुलतिया या खंडतिया कहा गया। यही कुलतिया आगे चलकर कुलता (कोलता) कहा जाने लगा। इन्हीं चसाओं का एक अंग खंडतिया आगे चलकर खंडायत के रुप में विकसित हुआ। तात्पर्य यह है कि कुलों में निवास करने वाली एक उन्नत कृषि जाति कुलता से नामित हुई। यदि आप कुलता जाति के निवास ग्रामों को देखें तो यह सत्य अपने आप प्रकट होगा कि वे सभी ग्राम किसी न किसी नदी नाले के किनारे बसे हैं। कुलता ग्राम ऐसे भी मिलेंगे जहां कुलताओं ने स्वयं होकर सिंचाई हेतु पहले पानी की व्यवस्था तालाब या बांध के द्वारा की है और फिर वहां बसे हैं। अत: यह विश्वास करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि कुलता(कुलतिया) नामकरण स्थान विशेष के कारण हुआ है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि श्रेष्ठ वंश (कुल) के कारण ही कुलता नामकरण हुआ होगा पर ऐसा कहने में आत्मप्रशंसा का भाव अधिक है, स्वाभाविकता नहीं। कुछ लोगों ने तो कुलता जाति को शब्द साम्य के आधार पर कुलु उपत्यका की एक जाति माना है जो अर्थहीन और यथार्थ से कोसों दूर है। कर्म और व्यवसाय के साथ-साथ स्थान विशेष का भी नामकरण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अपने कर्म को अधिक सार्थक और श्रेष्ठ और अनुकरणीय बनाने हेतु कुलों में निवास करने वाली जति कुलता है।
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आर्थिक परिदृश्य
कोलता समाज दशा एवं दिशा
परिचय
पुटका सरायपाली में जन्मे डॉ.नंदकुमार भोई पेशे से प्राध्यापक हैं। अर्थशास्त्र में पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त डॉ.भोई का कोलता समाज की आर्थिक स्थिति पर विश्लेषणात्मक लेख
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छत्तीसगढ क़ोलता समाज जिसे बाबा बिशाशहे कुल कोलता समाज के नाम से जाना जाता है को जातियों की श्रेणी में उच्च जाति का दर्जा दिया गया है। इस समाज में 120 वर्ग पाए जाते हैं जिसके कारण विशाशहे का नामकरण हुआ है। वर्ग, गोत्र, जातिगत गुण, समाजिक, सांस्कृतिक परंपरा एवं आचार-व्यवहार के दृषिकोण से इस समाज को एक सम्पन्न समाज का स्थान मिला है। इस समाज की आराध्य रणेश्वरी देवी या रामचंडी देवी है जो शक्तिस्वरुपा मां दुर्गा, काली देवी और लक्ष्मीदेवी के रुप ही हैं।
कोलता जाति की जनसंख्या बताना तो आसान नहीं है क्योंकि इस इसका प्रकाशित रुप में रिपोर्ट या समाजिक रुप से आंकलन नहीं हो पाया है। अनुमानत: इनकी संख्या दो लाख मानी जाती है। छत्तीसगढ़ में इस जाति का फैलाव मुख्यत: रायगढ़ ,जशपुर, बरमकेला-सरिया , सरायपाली ,बसना एवं पिथौरा के अलावा महासमुंद, रायपुर, भिलाई, बिलासपुर एवं कोरबा आदि नगरों में है, जो रोजगार या शिक्षा अर्जन हेतु इन नगरों में बस गए हैं। परंतु इन का संबंध अपने मूल ग्रामों में बना हुआ है। इस समाज का समाजिक रहन सहन, सांस्कृतिक एवं भाषाई विशेषताएं संबलपुर अंचल से मिलती जुलती हैं। माना जाता है कि यह प्रांत प्रारंभ में उत्कल के संबंलपुर प्रांत में सम्मिलित था। जो महाकोशल में शामिल था कालांतर में उड़ीसा के पृथक अस्तित्व में आने से यह क्षेत्र पृथक हो गया। यह भ्रम अवश्य प्रसारित किया जाता रहा है कि इस समाज का आगमन बहुत पहले उड़ीसा प्रांत से हुआ है परंतु इतिहासकार खंडन करते हैं कि यह समाज मूल रुप से यहां ही बसा है राज्यों का विभाजन होने के कारण यह जाति अलग-अलग क्षेत्र में बंट गए।
कोलता जाति एक मध्यमवर्गीय समाज है। सामाजिक इतिहास का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि यह समाज कृषि प्रधान समाज है तथा भूमि के दृष्टिकोण से धनाढय समाज है। पूर्व में इस अंचल के हर गांव में इस जाति का गौटिया (प्रमुख)हुआ करता था। गांव के गौटिया के बनाए गए नियम एवं व्यवस्था उस गांव में लागू होते थे। अब कृषि पर लागत बढ़ने, इस वर्ग की कुछ अपनी कमजोरियों तथा समाजिक पारिवारिक टूटन के कारण यह प्रथा समाप्ति की ओर है। एक दृष्टि से इसे इस जाति के गौरव का विलुप्तिकरण कह सकते हैं।
इस समाज का रहन-सहन संकुचित होता है। एक छोटे से जगह पर कई लोगों का निवास होता है। अनिवार्य सुविधाओं का अभाव देखा जा सकता है, जब तक अनिवार्य नहीं हो जाता वे अन्यत्र निवास नहीं करते हैं। पलायन की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती अपने आसपास के वातावरण को छोड़ना नहीं चाहते परिणामस्वरुप ये काफी संकुचित होते हैं,संभवत: इसी कारण इनकी सोच का दायरा विशाल नहीं होता जो इस समाज के अवनति का प्रमुख कारण माना जाता है।
कोलता समाज का अधिसंख्य आज भी कृषि पर निर्भर है अर्थात कृषक आधारित समाज है। बड़े कृषकों का छोटे-छोटे रुप में तब्दील हो जाना, कृषि लागत अत्यधिक बढना, इस समाज का इन्य क्षेत्रों स्थानांतरण न हो पाना तथा इस समाज के लोगों का कृषि पर निजी भागीदारी न होकर दूसरे श्रम से निर्भर होना ऐसे कुछ विशेष कारण है जिससे कृषि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता जा रहा है, जबकि लागत लाभ शून्य है। परिणामस्वरुप आज समाज की आर्थिक स्थिति दयनीय नजर आ रही है। इस समाज में (नौकरीपेशा वर्ग को अलग कर देखें तो)आय की तुलना में बचत न्यून है। समाज की परंपरागत आदतें, खानपान, पहनावा, दिखावा पर खर्च अधिक है। स्वत: उपार्जन नहीं के बराबर है, और नही बचत की प्रवृत्ति है। आज समाज कृषि से विमुख हो रहा है। समाज एक अजीब दयनीय स्थिति से गुजर हो रहा है। हमारे सामने कुछ ऐसी जातियां (समाज) हैं जिनका मूल आधार खेती ही है पर वे खुद परिश्रमी हैं,स्वयं का श्रम है, बचत करने की प्रवृत्ति है, विकासवादी सोच है, कुछकर गुजरने की तमन्ना है। अन्य को आगे को बढ़ते देखकर आगे बढ़ने, बढ़ाने की प्रवृत्ति है। उसकी बराबरी करने की सोच है न कि दूसरों को गिराने की। उनमें प्रतिस्पर्धा करने की भावना है न किर् ईष्या की। जिसके कारण ये समाज निरंतर उन्नति की ओर अग्रसर हैं।
इस समाज में आधुनिक व्यवसायिक सोच का अभाव है। आज भी परंपरागत कृषि को अपनाया गया है। कृषि में व्यवसायिक फसलों के उत्पादन को महत्व नहीं दिया जा रहा है। निज सिंचाई सुविधाओं का अभाव है,नए कृषि तकनीकों को अपनाने से आज भी हिचकता है। सरकारी योजनाएं जो कृषि संवर्धन के लिए लागू किए जा रहे हैं यह वर्ग उसका लाभ कम ही उठा पा रहा है या कहें नवीन कृषि उन्नत तकनीक का प्रभाव इस समाज पर कम ही देखे जाते हैं। इसका प्रमुख कारण (रिस्क वियरिंग केपेसेटी) जोखिम लेने की क्षमता का अभाव है, जो विकास के लिए एक बड़ी बाधा है।
कोलता समाज में पुरुष शिक्षा का स्तर अच्छा है। साक्षरता दर अधिक है। समाज में उच्चशिक्षा प्राप्त लोगों का एक समूह सा है। समाज के अधिकाशंत: शिक्षकीय पेशे से जुड़े हैं जो खेती में संलग् हैं। परन्तु प्रशासनिक क्षेत्र या उच्च पदों पर इनकी संख्या न्यून है। कृषि पर पूर्णत: निर्भर होने के कारण बेरोजगारों की संख्या अधिक है। रोजगारोन्मुखी पाठयक्रम के प्रति न्यून रुझान, अध्ययन हेतु अन्यत्र न जाने की विवशता, प्रतियोगी परीक्षाओं में उचित मार्गदर्शन का न मिल पाना या फिर इसके लिए ऐसा महौल न मिल पाने से इस समाज के युवा दिशाहीनता के शिकार हो रहे हैं। कोलता समाज पुरुष प्रधान समाज है। महिलाएं अब भी घर की चहारदीवारी से बाहर नहीं निकल पाईं हैं। हालाकि वे कृषि कार्यों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहता है। खेतों में वे अपने पति के साथ हाथ बंटाती हैं। घरों में खेती विषयक अन्यत्र कई जिम्मे उनके हवाले रहते हैं। अधिकांश युवतियों की संख्या माध्यमिक या फिर प्राथमिक स्तर तक है। नौकरीपेशा महिलाओं की संख्या नहीं के बराबर है।
किसी भी समाज में सम्पन्नता उसकी व्यवसायिक सोच, व्यापारिक योगदान से जाना जा सकता है। अब तक समाज के किसी सम्पन्न व्यक्ति द्वारा बड़े उद्योग तो दूर लघु उद्योग भी संचालित नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में अति लघु व्यवसाय हैं जो एक आशा का संचार करती हैं। कुल मिलाकर कहें तो व्यवसायिक सोच का अभाव , लागत की कमी, सामाजिक एवं घरेलू प्रश्रय नहीं मिलना भी इनके कारण हैं।
सहयोग की भावना से किसी समाज का विकास संभव जो इस समाज की एक सबसे बड़ी कमजोरी है। विकासवादी सोच का अभाव इस समाज में देखने को मिलता है। आर्थिक रुप से किसी के लिए संबल न बन पाएं तो क्या हमें उसे मानसिक या नैतिक रुप से संबल नहीं देना चाहिए। इस पर गौर करनना जरूरी है। छत्तीसगढ क़ी जनसंख्या 2 करोड़ की तुलना में छत्तीसगढ क़ोलता समाज की जनसंख्या 2 लाख एक प्रतिशत ही है। जिसे अल्पसंख्यक कहा जा सकता है। समाज का मूल आधार कृषि निरंतर गिरावट की ओर है। कृषि पर लागत बढ़ रहा है, खेतीहर श्रम की कमी होती जा रही है। बेरोजगारी का दबाव भी बढ़ रहा है। बचत का अभाव कुछ ऐसे प्रमुख कारण हैं जिससे समाज की दशा दयनीय स्थिति को उजागर करता है। समाज को एक नई दिशा की जरूरत है। सम्पूर्ण जातिगत सोच में बदलाव लाना होगा और आर्थिक क्रांति की ओर अग्रसर होना होगा। इस दिशा में कुछ बिंदुओं पर चिंतन और मनन करना होगा।
1.समाजिक संगठन मजबूत हो तथा इसमें ऐसे लोगों को स्थान दिया जाए जो विकासवादी सोच के साथ उर्जावान हों।
2. अल्पसंख्यक समाज की तरह सहयोग की भावना रखें और इसकी बुनियाद भी अपने आले वाली पीढ़ी पर जरूर डालें।
3. कृषि के पारंपरिक तकनीक में बदलाव लाना होगा व्यापारिक फसलों को लेना होगा भले ही वह कम रकबे में हो। इस हेतु सरकारी कई अन्य योजनाओं पर भी ध्यान देना होगा। दुग्धपालन बकरीपालन जैसे व्यवसाय वे आसानी से कर सकते हैं, इससे उनको आर्थिक संबल मिलता रहेगा। घरेलू खर्चों में भी मितव्ययता अपनानी होगी।
4. नई पीढ़ी को नौकरी की अपेक्षा निज व्यवसाय की ओर प्रेरित करना होगा। महिला शिक्षा को ेप्रोत्साहित करना होगा, बालिकाओं को कम से कम हायर सेकेण्डरी स्तर तक शिक्षा प्रदान करें।
5. राजनीतिक भागीदारी पर भी ध्यान देना होगा जिससे समाज को एक दिशा मिल सके।
अन्त में, समाजिक परिवर्तन या विकास दो या चार साल में नहीं होता बल्कि यह दीर्घकालीन प्रक्रिया है। जिसकी शुरुआत आज से करनी होगी। हर समाज की कमियां भी हैं तो विकास का आधार भी। इस आधार को और मजबूत करना होगा। आज हमें अपने अनुवांशिक सोच में बदलाव लाना होगा। छत्तीसगढ़ कोलता समाज की रायपुर इकाई ऐसे संघर्षपूर्ण समय में सामाजिक दशा एवं दिशा पर एक बहस छेड़कर निश्चित ही साधुवाद का पात्र है। यह प्रयास केवल और केवल पत्रिका के कलेवर तक सीमित न रहे उसे समाज को उन्नतिशील समाज की दिशा में आगे ले जाने हेतु प्रयास करना होगा तभी उसका प्रयास सार्थक होगा तथा अन्य भी इससे प्रेरित होंगे।

Monday, May 26, 2008

आसमान बस कुछ ही कदम हमसे दूर था

आसमान बस कुछ ही कदम हमसे दूर था। सूरज ऐसा लग रह था मानो लाल गेंद हो। हनुमान द्वारा सूरज को कोई फल समझकर मुंह में भर लेने की कथा बरबस ही मेरी स्मृति पटल पर उभर आई। सूरज की पूरी उर्जा मानो यहां आकर शांत हो जाती हो। हम दार्जिंलिंग में, मई की भरी गर्मी में ठिठुर रहे थे।

30 अप्रैल को हमने माना विमानतल से कलकत्ता के लिए एयर डेक्कन के विमान से रवाना हुए। पहली बार मैं घर से दूर इतनी दूरी की लंबी यात्रा पर निकली थी। पहली बार विमान में बैठने का सुयोग मिला था। रोमांच, डर, उत्सुकता और न जाने क्या कुछ मन में समाया हुआ था। हमारे दोनों बच्चे आयु और पियुष तो न जाने कितने दिनों से विमान के सफर की बातें किया करते थे।
एक दिन पहले पहुंचे मेरे पति के मित्र रामनारायण व्यास कलकत्ता में अपने परिवार के साथ इंतजार कर रहे थे लेकिन रायपुर में विमान ने लगभग दो घंटे देरी से उड़ान भड़ी और हमारे वहां पहुंचते तक छूट गया। मित्र के परिजन जो उन्हें वहां छोड़ने आए थे वे हमारा वहां इंतजार कर रहे थे। हम जब पहुंचे तो उन्होंने मित्र के रवाना होने की जानकारी दी। उन्होंने हमारे लिए भोजन का पैकेट भी तैयार कर रखा था। उन्होंने तुरंत हमारे लिए बस की व्यवस्था की। उनकी व्यवस्था करते तक हमने स्टेशन में उनके द्वारा लाया गया भोजन भी कर लिया। हम यहां से एक एरकंडीशन बस से रात साढ़े 11 बजे हम कलकत्ता से सिलीगुड़ी के लिए रवाना हुए।
बस की खिड़की से पति विवेक भोई के साथ दार्जिलिंग की हसीन वादियों का नजारा अपने दिल में कैद करते मेरा मन बार-बार यही कह रहा था अच्छा हुआ ट्रेन छूट गई। नहीं तो ऐसे मनोरम नजारे को देखने का मौका इतनी करीब से कैसे मिलता। ऊंची निची पहाड़ियों घाटियों तंग संकरी सड़कों से गुजरती हिचकोलें खाती हमारी बस अपने गंतब्य की ओर अग्रसर हो रही थी।
उधर मेरे दोनों बच्चे आयुष और पियूष बार-बार पूछने लगे थे कि हम कब पहुंचेंगे। 12 घंटे की सफर तय करने के बाद बस सिलीगुड़ी पहुंची। सिलीगुड़ी में रामनारायण व्यास, उनकी पत्नी हेमा व्यास, दोनों बच्चे दिव्यांस और राघव बेसब्री से हमारा इंतजार कर रहे थे।

सिलिगुड़ी
सुबह 11 बजे हमारी बस सिलीगुड़ी पहुंची। यहां के एक लॉज में व्यास परिवार हमारा इंतजार कर रहा था। यहां लाज में नहा धोकर खाना खाया और सफर की थकान दूर करने पलंग में पसर गए। थोड़ी सी नींद ने हमें तरोताजा कर दिया था। अब यहां से व्यास परिवार के साथ दार्जिलिंग के लिए हम रवाना हुए।
हमने दार्जिलिंग जाने के लिए यहां से टैक्सी ली हालांकि यहां जाने के लिए ट्रेन भी उपलब्ध हैं। बरसों पुराना बाप इंजन वाली यह ट्रेन टाय ट्रेन के नाम से जानी जाती है। इस ट्रेन का मजा यदि आपके पास समय ज्यादा हो तो लिया जा सकता है लेकिन हमारे पास वक्त उतना नहीं था। पर ट्रेन को अपने ही साथ-साथ चलते देखते जाने का मजा पहली बार यहां आप ले सकते हैं। पटरी और सड़क साथ-साथ चलते हैं। कुछ इस तरह लगता है मानो पटरी और सड़क एक दूसरे से वेणी की तरह गुंथी हुई हो। पहाड़ी के कारण इस ट्रेन की गति काफी धीमी होती है। धीरे-धीरे रुककर चलती हुई ट्रेन से आप जगह-जगह उतरकर आसपास के दृश्यों का मजा ले सकते हैं।
धीरे-धीरे हमारी टैक्सी उपर बढ़ी जा रही थी। ज्यों-ज्यों हम पहाड़ियों के उपर बढ़ते जा रहे थे ठंड भी बढ़ने लगा। कहां रायपुर का तपिश से निकले हम अब ठंड की आगोश में थे। उंची-उंची पाहड़ियां, संकरे मार्ग, टेढ़े-मेढ़े रास्ते साथ-साथ गुजरती ट्रेन की पटरी, नीचे गहरी खाई। ड्राइवर की हल्की सी लापरवाही मौत के मुंह में ला खड़ा कर दे। मन यहां आते-आते थोड़ा सा दार्शनिक होने लग गया था। टैक्सी ड्राइवराें और ट्रेन चालक का आपसी समन्वय देखकर लगा कि दोनों के रास्ते एक हैं, मंजिल एक, पर संसाधन रुप से अलग-अलग पर होते हुए भी कितने सजग और सुचारू हैं। कहीं-कोई गलतफहमी, चूक की गुंजाइश नहीं। दाम्पत्य जीवन भी तो इसी तरह है। लुभावने चाय के बागानों को मैंने फिल्मों में देखा था पर रास्ते भर फैले इन बागानों को देख उसकी ताजगी यहां आकर महसूस करने को मिली।


टाइगर हिल
अब हम थे टाइगर हिल में। हवा में लाल गेंद की तरह लटका सूरज। ऐसा लगा मानों हम आसमान से कुछ कदम ही दूर हैं। हनुमान द्वारा सूरज को कोई फल समझकर मुंह में भर लेने की कथा बरबस ही मेरी स्मृति पटल पर उभर आई। सूरज की पूरी उर्जा मानो यहां आकर शांत सी हो जाती हो। दार्जिलिंग में हम चाय के बागानों में गए। चिड़ियाघर, संग्राहलय, बौध्द मंदिर, रॉक गार्डन, मिरीक झील देखा। सब कुछ अनुपम, सब कुछ सबसे अलग हटकर, क्या कह,ूं क्या लिखूं , शब्द भी पकड़ में नहीं आ रहे। हर शब्द अपने वजन में कमतर और छोटा पड़ने लगा। बच्चों ने तो रॉक गार्डन में खूब मजे किए।
गंगटोक
अब हमारा लक्ष्य था सिक्किम की राजधानी गंगटोक। दार्जिलिंग से यहां जाने के लिए 140 किलोमीटर का सफर सड़क मार्ग से तय करना पड़ता है। 11 किलोमीटर तक साथ-साथ चलती है चंचला तिस्ता नदी। 11 किलोमीटर के इस फासले को हमने राफ्टिंग से तय किया। राफ्टिंग के इस रोमांचपूर्ण सफर ने तन-मन में एक नई उर्जा भर दी थी।
इसके बाद हम आगे के लिए रवाना हुए। पहाड़ों से गुजरते कल-कल करते झरने, फूल पौधों से लदी धरती को देख लगा मानो स्वर्ग का एक हिस्सा यहीं पर आकर ठहर गया हो। नाना परिधानों से सजी प्रकृति के इस रुप को निहारते जब हम सिक्किम पहुंचे तो शाम के 6 बज गए थे। गंगटोक में शाम 5 बजे से रात 9 बजे तक टैक्सी के प्रवेश पर प्रतिबंध है हम टैक्सी स्टैंड से पैदल ही लॉज पहुंचे। यहां सस्ते से लेकर महंगे लॉज भी उपलब्ध हैं। आप अपनी आय और जरूरत के हिसाब चुनाव कर सकते हैं।
गंगटोक में सबसे अच्छी बात यहां पर पालीथीन पर लगा प्रतिबंध लगा। यहां पालीथीन का उपयोग करते पकड़े जाने पर जुर्माना देना पड़ता है। लगा काश हमारे छत्तीसगढ़ में भी ऐसा कानून लागू होता तो देश का सबसे गंदा शहर का खिताब मिलने से रायपुर को नवाजा तो नहीं जाता। सुबह होते ही हम सबसे पहले बौध्द मंदिर गए फिर बौध्द संग्रहालय देखा, फिर जूलोजिकल गार्डन।
रोप वे से गंगटोक का नजारा अपने आप में अलग अनुभव रहा। हरेभरे पहाड़, सीढ़ीनुमा खेत सर्पाकार सड़कें और उन पर दौड़ी टैक्सियां मन के हर कोने को छू गईं। आपके पास पैसे हो तों आप किराए में हेलीकॉप्टर भी ले सकते हैं। दिनभर आसपास के अन्य कई जगहों को देखा कुछ खरीददारी की।

यूमथांग
हमारा अगला पड़ाव था यूमथांग। गंगटोक से 28 किलोमीटर दूर समुद्रतल से 12 हजार पीट की उंचाई पर स्थित । रास्ते भर लाल और सफेद आर्किड फूल मानो आपका कोई गुलदस्ता लेकर स्वागत कर रहा हो। पहाड़ाें में बिछी बर्फ की चादर जैसे शिव भस्म लगाए समाधि में लीन हाें। टैक्सी के चालक ने बताया कि ये फूल अपने आप लगते हैं इसे लगाया नहीं गया है।
यूमथांग से पहाड़ों का सफर 16 किलोमीटर तय करना पड़ता है। यहां का मौसम बच्चों सा है, एकदम नाजुक। पल भरमें बदली और फिर बारिश। सूरज की किरणें यहां मानो पतली हो जाती हैं। यहां हम सबने बर्फ का खूब मजा लिया। बच्चे तो घरौंदे बनाने और एक दूसरे पर बर्फ फेंकने में जुट से गए थे। आसानी से स्केटिंग करते लोगों को देखकर ऐसा लगा मानव ने प्रकृति के हर रुप का उपभोग अपने तरीके से करना सीख लिया है। दिन भर यहां मौ- मस्ती करने के बाद हमने रात लॉज में बिताई। यहां रहने और खाने के लिए पैकेज की व्यवस्था है। यहां लॉज में कंबल ही नहीं स्वेटर तक किराए में उपलब्ध हो जाते हैं यह जानकर हमें इस बात पर अफसोस हुआ कि हमने आने से पहले इस तरह की छोटी-छोटी जानकारियां क्यों इकट्ठी नहीं कर लीं। रायपुर से गरम कपड़े इतने लाए थे कि एक सूटकेस तो उसी का था।

नाथु ला और बाबा मंदिर
अब हम अगले दिन निकल पड़े नाथु ला के लिए। गंगटोक से इसकी दूरी है 168 किलोमीटर। रास्ता बहुत ही खतरनाक, मौत जैसे हर पल किसी का इंतजार कर रही हो। रास्ते भर किसी अनहोनी की आशंका से घिरे हम हनुमान जी को याद करते रहे। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से गुजरते ऐसा लग रहा था मानो बादल सिर को अब छूकर निकल जाएगा। इसी रास्ते में हमने प्रसिध्द झील मंदाकिनी को देखा।

हमारी उत्सुकता बाबा मंदिर को लेकर थी अब तक हमने अखबारों, पत्रिकाओं से इसके बारे में थोड़ा बहुत जान रखा था। आज यहां इसके साक्षात दर्शन होने जा रहे थे। बाबा मंदिर में सैनिक अधिकारी हरभजन सिंह की पूजा की जाती है। माना जाता है कि हरभजन सिंह देश के प्रति अपना फर्ज निभाते अदृश्य हो गए थे परंतु आज भी यहां उनके होने का अहसास होता है। उनके कबिन में आज बी एक मेज और एक कुर्सी रखी हुई है। उनके फोटो के सामने लिखा हुआ है- आप यहां से जाएं तो लोगों को यह बतलाएं कि मैंने अपना आज उनके कल के लिए कुर्बान कर दिया है। नाथू ला आने वाल हर सख्श इस मंदिर में जरूर आता है।
बाबा मंदिर से 9 किलोमीटर आगे है नाथू ला। बाबा मंदिर से यहां का सफर पैदल तय करना पड़ता है। टैक्सी यहीं रह जाती है। समुद्र तल से 13 हजार 200 फीट की उंचाई पर स्थित नाथुला में तापमान 0 डिग्री सेल्सियस से नीचे रहता है। बर्फीली हवाएं हमेशा चलती रहती हैं। यहां आक्सीजन की कमी के कारण सांस की तकलीफ हो जाती है। जिन्हें सांस की तकलीफ हो उन्हें इस जगह नहीं आना चाहिए। वैसे आक्सीजन साथ लेकर यहां आया जा सकता है। सामान्य व्यक्ति पापकार्न और बंद गोभी की सब्जी खाकर अपने शरीर को गर्म रख सकते हैं।
नाथू ला से चीन की सीमा लगी हुई है। इस स्थिति में भी सीमा पर देश की पहरेदारी करते जवानों को देखकर हमार सिर अनायास ही श्रद्दा और देशभक्ति से झुक जाता है। यहां चीनी सैनिकों से मिलकर बातें कीं। उनके शिष्टाचार ने हमें काफी प्रभावित किया। ऐसा लगा मानो दिल से जुड़ने के लिए सीमा कोई मायने नहीं रखती। बस प्यार ही बहुत है। चंद दिनों की अविस्मरणीय छवियों के साथ हम लौट पड़े अपनी कर्मभूमि रायपुर के लिए।
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श्रीमती नीता-विवेक भोई
महावीर नगर, रायपुर

Sunday, May 25, 2008

छत्तीसगढ़: अपनी ही जमीन से बेदखल आदिवासी

छत्तीसगढ़: अपनी ही जमीन से बेदखल आदिवासी

परिचय
जिस तरह विश्व में हमारे देश का स्थान है उसी तरह स्थान अन्य प्रदेशों की तुलना में मध्यप्रदेश का था। किसी राज्य के पृथक्करण के पीछे दीर्घकालीन आर्थिक,राजनीतिक सामजिक उपेक्षा और शोषण होता है जिससे धीरे-धीरे असंतोष जन्म लेता है और यही बात छत्तीसगढ़ के निर्माण के पीछे लागू होती है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से छत्तीसगढ क़ी प्रशासनिक दूरी अधिक होने से नीतिगत फैसलों को करने और उनके क्रियान्वयन में देरी होती थी। छत्तीसगढ़ की आबादी मालदीव,कुवैत, इराक,नेपाल वशरीलंका जैसे राष्ट्रों से भी अधिक है। छतीसगढ़ का क्षेत्रफल कई राज्यों के क्षेत्रफल से अधिक है। छत्तीसगढ़ से एकत्रित राजस्व की तुलना में छत्तीसगढ़ को विकास हेतु पर्याप्त धन नहीं दिया जाता था? जबकि अकेले बस्तर जिले से सालाना 120 करोड़ रुपए का राजस्व प्राप्त होता था और उसे विकास के लिए महज 5 करोड़ रुपए दिए जाते थे। छत्तीसगढ अंचल से सदैव ही भेदभाव किया जाता रहा उच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय की खंडपीठ, राजस्वमंडल, परिवहन आयुक्त, आबकारी आयुक्त, महालेखाकार, भूराजस्व, विद्युत मंडल, वित्त निगम आदि प्रमुख कार्यालय भोपाल और जबलपुर में स्थापित किए गए। यहां का विकास तो केवल क्षेत्रीय खनिज संपदा के दोहन तक सीमित होकर रह गया था। वहीं छत्तीसगढ़ अपनी भाषा,रहन,सहन व विशिष्ट संस्कृति से शेष मध्यप्रदेश से अलग था।

देश के इस सबसे बड़े राज्य अविभाजित मध्यप्रदेश के विभाजन के पीछे प्रमुख कारण यह था कि दूरस्थ अंचलों तक विकास का उजाला पहुंच सके, सबका विकास हो सके सबको सहजता से न्याय मिल सके। हर खेत तक पानी, हर हाथ को काम, हर बच्चे को दूध मिल सके, कोई भी आदमी भूखा या नंगा ना रहे को साकार करने के लिए छत्तीसगढ़ अंचल को पृथक राज्य बनाया गया।
अगस्त 2000 में संसद के दोनों सदनों ने राज्य का पुनर्गठन विधेयक पारित कर दिया, यह विधेयक लोकसभा में 31 जुलाई को तथा राज्य सभा में 9 अगस्त 2000 को पारित किया गया। महामहिम राष्ट्रपति ने 28 अगस्त 2000 को अपनी मंजूरी दे दी। 1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ भारत के 26 वें राज्य के रुप में अस्तित्व में आ गया।

प्रशासनिक विभाजन
135,191 वर्ग किलोमीटर में फैले छत्तीसगढ़ राज्य को प्रशासनिक दृष्टि से तीन संभागों रायपुर, बस्तर तथा बिलासपुर और 16 जिलों में विभक्त किया गया है। रायपुर संभाग के अंतर्गत 6 जिले रायपुर,महासमुंद,धमतरी, दुर्ग, राजनांदगांव,कवर्धा हैं। बस्तर संभाग के अंतर्गत 3 जिले बस्तर, दंतेवाड़ा, और कांकेर है। बिलासपुर संभाग में 7 जिले क्रमश: बिलासपुर, जांजगीर चांपा,कोरबा, रायगढ़, जशपुर, सरगुजा, कोरिया जिले हैं। बिलासपुर और बस्तर संभाग के अधिसंख्य जिले वनांचल हैं जहां आदिवासी निवास करते हैं। बिलासपुर संभाग में 130 विकासखंड हैं जिसमें से 25 आदिवासी विकासखंड हैं। इसी तरह बस्तर संभाग के 32 विकासखंडों में से 14 आदिवासी विकासखंड हैं। रायपुर संभाग में 49 विकासखंडों में से 7 आदिवासी विकासखंड हैं।

जनसंख्या
सन 2001 में हुई जनगणना के अनुसार छत्तीसगढ़ की जनसंख्या 20,795,956 है जिसमें पुरुषों की संख्या 10,452,426 और महिलाआें की संख्या 10,343,530 है। कुल जनसंख्या में से अनुसूचित जाति व जनजाति की संख्या 2148000है। राज्य कुल आबादी की 79.92 जनसंख्या गांवों में निवास करती है। जिसमें 8330000 महिला और 8291000 पुरूष हैं।

जनजातीय संस्कृति
जनजातीय संस्कृति छत्तीसगढ़ की पहचान है। यहां की कुल जनसंख्या का 35.77 प्रतिशत जनजातीय संस्कृति से संबंधित हैं। छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 21 है। जिसमें गोंड,बैगा,कोरबा,उरांव हल्वा,भतरा,कंवर,कमार,माड़िया,मुड़िया,ङैना, भारिया, बिंडवार, धनवार,नगेशिया मंढवार, खेरवार, भुंजिया, पारधी खरिया, गड़ाबा या गड़बा हैंं। इनकी कई उपजातियां भी हैं। छह अनुसूचित जनजातियों अबुझमाड़िया, बैगा, भारिया, बिरहोर, कमार, कोरवा, को आदिम जनजातियों का दर्जा प्राप्त है। इनमें से अबूझमाडिया, बैगा, कोरवा जाति की प्रमुखता है। गोंड जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है। यह छत्तीसगढ़ के दक्षिणी पर्वतीय क्षेत्रों कांकेर, बस्तर, दंतेवाड़ा में निवास करती है। इनका प्रमुख व्यवसाय कृषिहै। ये शिकार तथा मजदूरी आदि में भी काफी रुचि रखते हैं। कोरबा जनजाति सरगुजा, रायगढ़, जशपुर,कोरिया बिलासपुर तथा जांजगीर जिलों में निवास करती है। पहाड़ों में रहने वाले कोरवा को पहाड़ी और मैदानों में पहने वाले कोरवा को दिहरिया कोरबा के नाम से जाना जाता है। येजमीन बदल-बदल कर खेती करते हैं। पहाड़ी कोरवा रूढ़िवादी और एकान्तप्रिय होते हैं। माड़िया बस्तर जिले में निवास करते हैं। इनकी उत्पत्ति प्रोटो आस्ट्रेलायड नृजाति प्रडजाति से हुई मानी जाती है। पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले माड़िया दुनिया की सभ्यता से पूर्णत: विलग हैं। इनमें से अनेक अबूझमाड़ की पहाड़ियों में रहते हैं अत: इन्हें अबूझमाड़िया कहा जाता है। ये मुख्यत: झूम खेती करते हैं इनकी स्थानांतरिक खेती को दिघा, पेंडा व दाही कहा जाता है। इनकी प्रमुख देवी भूमि माता है। मुड़िया जनजाति का निवास स्थान बस्तर क्षेत्र है। जमीन बदल-बदलकर खेती करना इनकी प्रमुख विशेषता है नृत्य गायन और मदिरा पान इनकी प्रमुख विशेषता है। इनकी सर्वाधिक मौलिक विशेषता घोटुल प्रथा है। गड़ाबा या गड़वा जनजाति मुंडारी या कोलेरियन समूह की जनजाति है। ये बस्तर, रायगढ़ और बिलासपुर जिले में निवासरत हैं। ये बोझा ढोकर तथा खेती द्वारा अपना जीवन यापन करते हैं। बैगा द्रविड़ समुदाय की जनजाति है। ये बिलासपुर और राजनांदगांव क्षेत्र में निवासरत हैं। ये लोग जंगलों को ईश्वर द्वारा बनाया गया आवश्यकता पूर्ति का साधन मानते हैं। खेती तथा वनोपज इनकी आजीविका का प्रमुख साधन है।

वन और खनिज
छत्तीसगढ़ में विपुल प्राकृतिक संसाधन मौजूद हैं। वन और खनिज संपदा से सम्पन्न है यह राज्य। राज्य का 59285.27 हेक्टेयर भू भाग वनों से आच्छादित है जो छत्तीसगढ़ प्रदेश के कुल भू क्षेत्रफल का 43.85 है। भारत का 70 फीसदी तेंदूपत्ता का उत्पादन छत्तीसगढ़ से होता है। खनिज समपदाओं में 16 प्रकार के खनिज यहां पाए जाते हैं। इनमें चूना पत्थर, तांबा, लौह अयस्क, मैंगनीज, कोरण्डम,डोलोमाइट, टिन अयस्क, बाक्साइट, अभ्रक, सोप स्टोन यूरेनियम गेरू प्रमुख हैं।

कृषि
छत्तीसगढ़ के निवासियों के मुख्य व्यवसाय खेती है। अखंडित मध्यप्रदेश के कुल कृषि उत्पादन का 24.1 हिस्सा छत्तीसगढ़ राज्य में सम्िमिलित है। चावल यहां की प्रमुख फसल है। साल भर में केवल एक ही फसल मिलती है। यहां के संपूर्ण क्षेत्र में चावल होने के कारण इसे धान का कटोरा कहा जाता है। यह राज्य 6 सौ चावल मिलों के कारखानों को धान की आपूर्ति करता है।

छिना जा रहा जीने का अधिकार
भारत के नक्शे पर खनिज संपदा और अमीर धरती के नाम से स्थान प्राप्त छत्तीसगढ़ के आविर्भाव के साथ ही राज्य में खासकर औद्योगिक निवेश की ओर उद्योगपतियों का रुख बढ़ा है बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नजरें छत्तीसगढ़ की ओर लगी हुई हैं। खनिज और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के कई राष्ट्रीय कंपनियों ने अपनी परियोजनाएं प्रारंभ कर दी है। औद्योगिक विकास के नाम पर इन वनांचलों में स्थापित हो रहे संयंत्रों का इन आदिवासी क्षेत्रों में जोरदार विरोध हो रहा है पर आदिवासियों की जमीनें जो उनके भरण पोषण का एकमात्र साधन है उनसे छीना जा रहा है। संयंत्रों की स्थापना के कारण जंगल कट रहे हैं इससे भी इन आदिवासियों की आय जरिया खत्म होता जा रहा है। आदिवासियों के जल जंगल जमीन का संसाधन धीरे-धीरे छिनता जा रहा है। जिंदल द्वारा केलो नदी पर बनने वाली केलों विद्युत परियोजना का जोरदार विरोध वहां के आदिवासियों ने किया पर इसका अब तक सार्थक परिणाम सामने नहीं आया है। बहुराष्ट्रीय कंपनी रेडियस वाटर महानदी के बाद प्रदेश की सबसे बड़ी शिवनाथ नदी पर बांध बनाकर पानी बेच रही है। इसके लिए राज्य को करोड़ों का नुकसान हो रहा है पर राज्य सरकार इस पर ध्यान नहीं दे रही है। दुर्ग अंचल के किसानों को इसके पानी से वंचित होना पड़ रहा है। वे इसके पानी से खेती करते थे, यहां के लोगों के निस्तारी के लिए यह नदी एकमात्र थी जिस पर वे अवलंबित थे। औद्योगीकरण के कारण प्रदूषण बढ़ा है किसानों के खेत सीमेंट से पटने लगे हैं। कारखानों से उगलने वाला काला धुंआ खेत की खड़ी फसल को खराब करने लगा है। मजबूर किसानों को अपनी उपज बहुत ही कम कीमत में बेचने के लिए विवश होना पड़ रहा है। बीस हजार से ज्यादा देशी धान बीज के संग्रहण के लिए जाने जाने वाले इस राज्य के बीज बैंक को बहुराष्ट्रीय कंपनी सिजेंटा ने हथियाने की कोशिश की थी इससे साफ हो जाता है कि यह नवीन राज्य किस ओर अग्रसर होकर दुष्चक्र में फंसता जा रहा है। कोदो-कुटकी का उत्पादन आदिवासी करते हैं, उन्हें इसे बंद कर आधुनिक खेती अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है। पर आज हर्बल स्टेट का दावा करने वाला छत्तीसगढ़ में कोदो को मूल्य राजधानी रायपुर में प्रतिकलो 40 रुपए है। यह कोदो मधुमेह के मरीजों का प्रमुख आहार है।
औद्योगिकीकरण के कारण आदिवासियों को विस्थापित होना पड़ रहा है। बांध बन रहे हैं गांव और जमीनें डूबत में आ रही है। लाभ शहरों को हो रहा है। उद्योग स्थापित हो रहे हैं जमीनें आदिवासियों से छीनी जा रही हैं। कभी सिलिंग एक्ट का हवाला देकर जमीदारों से उनकी जमीनी छीनी गई अब विकास के नाम पर उद्योग स्थापित करने के नाम पर जमीनें छीनकर इन उद्योगपतियों के हवाले की जा रही है। पहले सिलिंग एक्ट से निकाली गई जमीनें आदिवासियों भूमिहीनों और दलितों को आंबटित की गई पर आज इन्हीं आदिवासियों की जमीनें छीनकर उद्योगपितयों के हवाले की जा रही हैं। क्या यह जमींदारी प्रथा का नवीनीकरण नहीं है। एक छोटे से पर बहुचर्चित कोडार बांध परियोजना जिस तरह से भ्रष्टाचार हुआ और जिस तरह अब तक इससे प्रभावित किसानों को उनका मुआवजा तक नहीं मिल पाया है। यह स्वत: इस तथ्य को इंगित करता है कि यदि आदिवासी इलाके में ऐसी कोई परियोजना होगी तो भोलेभाले आदिवासियों के हिस्से क्या आएगा। गंगरेल और अन्य कई परियोजनाओं के विस्थापितों को उनका मुआवजा नहीं मिल पाया है। मिला भी है तो बहुत ही कम। आदिवासियों की जल जंगल जमीन पर कब्जा कर आदिवासियों के लिए विकास का तर्क देना उसके खोखलेपन को साबित करता है। जंगल के बिना आदिवासी अधूरा है पर अभयारण्य के नाम आदिवासियों को उन स्थलों से बदेखल किया जा रहा है जंगलों में स्थित ग्राम उजाड़े जा रहे हैं उन्हें अब वहां रहने का हक नहीं है अब वहां जंगली जानवर रहेंगे। विकास का हवाला देकर बस्तर में नगरनार स्टील संयंत्र की स्थापना की जा रही है पर इससे न जाने कितने आदिवासी परिवार बेदखल किए जा रहे हैं। संयंत्र स्थापना कर जंगल खत्म किया जा रहा है जिससे इन आदिवासियों के आजीविका का प्रमुख साधन वनोपज भी खत्म होता जा रहा है। नए राज्य के निर्माण से उम्मीद थी कि इन आदिवासियों की स्थिति में सुधार होगा पर दिनों दिन उनकी स्थिति बजतर होती दा रही है। आदिवासी भूखे मरने लगे हैं।
शासन और प्रशासन से मिलने वाली सुविधाओं का उन्हें लाभ नहीं मिल पा रहा है। राज्य सरकार भी इनके विकास के लिए कोई आधारभूत संरचना का निर्माण नहीं कर पाई है सरकार के नीतिगत फैसलों के लाभ इन्हें नहीं मिल पा रहा है। यही कारण है आए दिन वनांचलों से काम की तलाश में अन्य राज्यों को पलायन होता है। राज्य की अधिकांश जनता ग्रामीण है और उनके जीवन-यापन का साधन कृषि पर अवलंबित है। वे व्यक्ति जिनके दो-चार एकड़ जमीन है या फिर वे मजदूर जो खेतों में काम करने अपना गुजारा करती है रोजगार के अभाव में खासकर गर्मी के मौसम में छत्तीसगढ़ से अन्यत्र आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार आदि चले जाते है और बारिश होने के पहले खेती के लिए वापस लौट आते हैं। वनांचलोें में शिक्षा की बेहतर व्यवस्था तो दूर प्रथमिक स्कूली शिक्षा ठीक ढंग से नहीं मिल पाती जिसके कारण आदिवासी शिक्षित होने से वंचित हो जाते है। स्वास्थ्य सुविधाएं भी न्यून रूप में है कई स्वास्थ केंद्र उनके निवास से कई किलोमीटर दूर होते हैं जहां वे पहुंच नहीं पाते। उन्हें प्राथमिक चिकित्सा का लाभ तक नहीं मिल पाता।
कुल मिलाकर देखें तो भूमंडलीकरण से छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का कोई भला नहीं हुआ है। उल्टे विकास के नाम पर उनके जीने के साधन, संसाधन और सांस्कृतिक मान्यताओं पर निरंतर आघात होता जा रहा है। उनके जीने के अधिकार पर सीधे प्रहार हो रहा है। सिकुड़ते जल, जंगल और जमीन से आदिवासियों के समक्ष एक अस्तित्व का संकट उत्पन्न होता जा रहा है। पहाड़ी कोरवा जनजाति की निरंतर घटती जनसंख्या इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। आज जल, जंगल और जमीन से बेदखल हो रहे आदिवासियों की स्थितियों पर एक सर्वेक्षण कर उनके पुनर्वास और विकास के लिए आधारभूत संरचनागत नीति निर्माण की जरूरत है। इन आदिवासियों की मूल परंपरा, मान्यताओं, सांस्कृतिक विरासत को क्षति पहुंचाए बिना उनको किस तरह से विकास की धारा में शामिल किया जा सकता है उस पर गहन अध्ययन की जरूरत है।

Saturday, May 24, 2008

तुम

शब्द में जैसे अर्थ हो तुम
गीतों में नाजुक बन्ध हो तुम
सरगम की इक-इक लय में
कविता हो कोई छंद हो तुम
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सुमन में सौंदर्य हो तुम
समीर में सौरभ हो तुम
सौन्दर्य में शचि हो तुम
पत्तियों में मुस्कराती शबनम हो तुम
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रूप हो तुम,रस हो तुम
गंध हो तुम, राग हो तुम
सांसों में जो नित-नित फिरता
प्राण बनी चेतना हो तुम
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सांसों की सरगम हो तुम
दिल की धड़कन हो तुम
पंचम स्वर में जो नित बोले
गीत वही संगीत हो तुम
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अधरों की तपन हो तुम
सीने की जलन हो तुम
इन्द्रधनुषी रंग लिए
बहकी -बहकी ख्वाब हो तुम
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रजनी की राका हो तुम
सूरज की रश्मि हो तुम
रिमझिम मीठी फुहार हो तुम
ठंड गुलाबी मधुमास हो तुम
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कली सी नाजुक हो तुम
कलगी की लचक हो तुम
हर शब्दों में आहट देती
कवि की चरम कल्पना हो तुम
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गरम हो तुम ,शीतल हो तुम
कोमल हो तुम , कठोर हो तुम
नरम हो तुम मंजुल हो तुम
प्रकृति की प्रतिकृति हो तुम
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मतवाले की मधुशाला हो तुम
जम पिलाती मधुबाला हो तुम
हर इक प्याले में छलकती
कड़वी-मीठी शराब हो तुम
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इच्छा हो, अभिलाषा हो तुम
जीवन की परिभाषा हो तुम
आसों में सांसे भारती
मन की सारी शक्ति हो तुम
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कलकल-छलछल सरिता हो तुम
पायल की रुनझुन मादकता हो तुम
मधुमय मंद झकोर हो तुम
स्वपन्मयी हिलोर हो तुम
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वामन का विपुल विस्तार हो तुम
विश्व का नवल श्रृंगार हो तुम
मौन होकर भी मुखर हो तुम
प्रथम स्पर्श प्यार हो तुम
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एक अधूरी मुस्कान हो तुम
रहस्यमयी वरदान हो तुम
प्रगतिमय सोपान हो तुम
भूत, भविष्य,वर्त्तमान हो तुम
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पल हो, प्रतिपल,अनुपल हो तुम
दिवस, रात्रि, संध्या प्रभात हो तुम
विजय स्वर प्रत्येक क्षणों में
इतिहास रचती युग गाथा हो तुम
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समीर का मृदुल मंद हास हो तुम
शरद का शशि विलास हो तुम
बसंत का परिहास हो तुम
परिवर्तनों में समाहित पूर्णता हो तुम
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चपल अबोध बचपन में तुम
ताप-तप्त उग्र यौवन में तुम
शांत गंभीर अन्तकाल में तुम
बद्ध होकर मुक्त हो तुम
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प्रबल झंझा पवन हो तुम
शांत विस्तारित गगन हो तुम
मन के सूने आंगन में
मधुमासी विश्वास हो तुम
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कच्ची फसल की गमक हो तुम
माटी की सोंधी महक हो तुम
संभावनाओं को समेटे
सृस्ती की चरम अव्भियक्ति हो तुम
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दुखितों का विश्वास हो तुम
प्यास में जैसे नीर हो तुम
पथ हो, पाथेय भी हो
मील का पत्थर संबल हो तुम
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श्रेय हो तुम,प्रेय हो तुम
शिक्षा हो तुम ,ज्ञान हो तुम
योगी की साधना हो तुम
सत्यं, शिवम्, सुन्दरम हो तुम
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तृष्णा हो तुम, तृप्ति हो तुम
उत्साह हो तुम, नैराश्य हो तुम
क्षितिज समेटे आँचल में
छलनामय बंधन हो तुम
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अमित युगों का संचित पुण्य हो तुम
शिव की कलिका शक्ति -पुंज हो तुम
प्रत्येक गृहों में रूप अन्नपुर्णा
दया, दृष्टि, क्षमा हो तुम
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सन्देश अमर गीता हो तुम
विश्वास प्रखर कुरान हो तुम
प्रेम अमित बाइबिल हो तुम
त्याग अपरिमित गुरुग्रंथ हो तुम
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पतित पाविनी गंगा हो तुम
सृजन्मयी मेधा हो तुम
उर्वर हो मरू भी तुम से
ऐसी अक्षय उर्जा हो तुम
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पूजा हो तुम,भक्ति हो तुम
श्रद्धा हो,समर्पण हो तुम
सफलता और सार्थकता में तुम
प्रार्थना के गीत हो तुम
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मां हो तुम, देवी हो तुम
प्रिय, प्रियतमा, पत्नी हो तुम
सखी,सहेली, बहन हो तुम
नाम नहीं,सर्वनाम हो तुम
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Thursday, May 22, 2008




सिरीमान गांधी बबा,
पांव परथों
मनके मैं अलकरहा वल्द टपरहा, जाति-भट्टी, धरम-ठर्रा, मुकाम- रजबंधा, रायपुर छत्तीसगढ़ के रहैय्या हावौं। एदे की आज तोला सबो सुरता कर हावंय तै पाय के मंय घलो एक अध्दी आसूं बोहावत तोला कोरी-कोरी परनाम करत हावौं।
हमर बड़ बाग रहिस की तोर असन बबा पायन, हामर देश मां तोर लाठी चश्मा अप लिंगोटी के डर मा गोरा मन गट्टी ला खाली कर दीन। तोर बताय रद्दा ला हमन देखत हावन अउ नवा तरीका ले चलेके कोसिस करत हवन। तोर सपना रिहिस की गांव-गांव मं गोरस के नदी बोहावे फेर आज हमन देखेन की एला पी के सबो बीमार परत हवैं, दूध के धंदा ला सबो गारी देवत हवैं। पानी नई मिलाय ले घलो पानी मिलाथस कहिके चाबे कस गोठियाथें तै पायके हमन गांव-गांव के गली-गली मं दारू के नरुवा बहावत के सोचे हवन। देस के सबो हालचाल ला देखके मंय एकरे खातिर देसी शारबा भट्ठी के ठेका लेवत हावौं। तोर किरपा रही, तो संझाहा अऊ रतिहा बाड़ही।
बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत कहो, तोर बेंदरा मन के ये वचन ला मन मं कभू नई बुलावौं। परानजाय फेर बचना न जाय कस धरे हावाैंं।
पर साल ठेका मं बनेच पाइयदा होइस ठार्रा ला पीके बनेच मन अंधवा, भैइरा अउ कोंदा होगिन। तोर बेंदरा के वचना मन ला मोर भट्ठी ह पूरा कर दीस। सरकार के परिवार नियोजन पोरग्राम मंय पूरा कर देंव। एकर सेती मोला आसीर्वाद दे ददा कि अवैया साल मं चार ठन भट्टी के ठो मिलेव।
तोर कहना रहिस मनखे ला सदा सत कहना चाही। झूठ बचना नई बोलना चाही। बबा, दारू ला पीके मनखे झूठ नई गोठियाता तोर सिध्दांत के मंय पक्का चलवैया हावौं, ऐकरे खातिर मंय अपन धंधा मं एकर अब्बड़ धियान राखत हावौं।
गांधी बबा, तोर बेंदारा के नवा चेला मन कभू-कभू मोला अब्बड़ परेसान करथें। फेर दू-चार अध्दी मसाला दे देंथंव तो पी खा के सुत जाथें। ओ मन बाुर नई देखें, नई सुने और नइ केहें। तोर टोपी अऊ खादी ला पहिन के कथे बेटा अलकरहा टोपी के मतलब आय टोंटी (घेंच) के आवत तक ले पी । धन्य मोर बड़े बाप तोर दुनिया देखे के चश्मा बड़ अकन हावय।
बबा तंय गोली खाके मजा ले सरग में गोड़ रगड़ावत होबे। मंय इहां तोर चेला मन के रोज गाली खावत तीनों बेंदरा के गोड़ मन मं नाक रगड़त हावौं।
तोर अंधवा बेंदरा ह पुलिस बनगे, मारपीट, दंगा पसाद चोरी ये सब ला नई देख सके। तोर भैंइरा बेंदरा ह अफसर होगे। मनखे भूख ले मरगे,टेटकू के टूरी ला गुंडा मन उठा के लेगीन। भट्टठी मं आइस त कथे मंय बुरा चीज देख सकथों और कहे सकथों फेर सुने नई सकौं। साले दारू में पानी मिलाते हो, महुआ वाला निकाल। चार ठन बोतल गठागठ ढार दीस अउ जब मातगे त कथे- कका अलकरहा , अइसनअपन भतीजा मन के धियान रखे रबे तो कोनो माइ के लाल परेसान नई कर सके।
तोर कोंदा बेंदरा ह आजकल मंतरी होगे हे। दिन रात ये कुर्सी ले उ कुर्सी नाचत फुड़ी खेलत रथे। कभू कराब गोठ नई गोठियावे। एख दिन कथे अबे टपरहा के औलाद अकेत नरियाथाें फेर कइसने कोनों ला फरक नई पड़े रे। तोर ये बंदेरा हा महुआ के ला नई पिये अंगूर के ला मंगाथे। छेरी के गोरस नई पिये छेरी ला का जाथे।
जै गांधी बबा, तोर बंदरा अऊ चेला मन के कारोबार अब्बड़ जोर ले चलत हावय। मोला घेरी-बेरी अलकरहा ददा, कका, बबा कहत रहिथें।
ऐ बबा सुन ले, तोर जमाना मं टूरा मन तोर ले सीख के तोर बर अपन घर-बार, डौकी -लइका जमीन जायददा सबो ला छोड़ देवें। ये परंपरा ला मंय राखे हांववव। मोर बट्टी मं आके सबो एके परानी हो जाथें। मोला आशीस दे बबा कि मोला घलो टाटा कस भारत रतन मिल जाए। मंय तोर कोरी-कोरी बंदना कत हांवव। भारत रतन मिल जाही त मं देस के घरोघर में दारू बनाए के कारखाना कोल दिहूं जेकर ले कोनो बाुर मत देखे, मत सुने अउ मत कहे।
बबा एदे मोर कान मं बात आवत हे कि मोर भट्टी ला टारे जाही। सरपंच ह गांव के कतको लोग मन के संग आए रहिस के ऐ भट्टी ह अवैध आय। गांव मं दंगा फसाद एकरे सेती होवत हे। अपन भट्टी के कसम खावक कहिथों बबा कि ये सरंपच हर लबरा आय। कतक दिन तक ऐला फोकट में दारू देतें। एक दिन तनातनी होगे ते बस ये खेल होगे। गांव के लइका पिटका महतारी मन ला धरके दिन भर नरियावत रहिस भट्टी हाटाओ, गांव बचाओ।
ऐकर फिकर वैइसे मोला नइये काबर पटवारी पेटूराम ह कहिस हे अरे बेफिकर र। मोर कलम के ताकत ले कोनो पार नई पांय हें। कलेक्टर करा घलो मोर कलम के काट नई ये। जानत तो हावस बेटा मोला का चाही- दू रोटी दू बोटी थोरकुन गंगाजल। सबो बुता एकरे बाद भकाभक निपट जाथे। ये बेंदरा मन के लइका पिचका मन ला घलो दू रोटी दू बोटी अउ थाकुन गंगाजल दे देबे अउ फेर ऐस कर।
अऊ कतक गोठियाबों बबा,तोर सुते के टैम होगे होही। मोर अरजी ला पढ़ लेबे बबा । सबो सत-सत गोठियाय हावौं। लबारी मारे होहूं त मोर ठेका ले खारिज करवा देबे। ठर्रा, मसाला ला छू के कसम खावत हावौं तोर बेंदरा मन ला कोनो किसिम के तकलीफ होय नही गों। तोर हर बरसी मं मसाला, ठर्रा फोकट में बांटथों अऊ बांटते रहिहों।

-तोरेच चेला
अलकरहा ठर्रावाला
रजबंधा
तारीख 2 अक्टूबर
दिन- सनडे