पानी किस कीमत पर?

4:59 PM, Posted by डा. निर्मल साहू, No Comment

छत्तीसगढ़ में कुछ सालों से जिस तरह भूजल का दोहन तेजी से बढ़ रहा है आनेवाले समय में भयावह तस्वीर सामने आ सकती है। अभी देखें तो कुछ साल पहले वे ट्यूबवेल जो 5 इंच पानी की धार छोड़ रहे हैं अब नल की तरह कबी -कभार एक दो घंटे चल पा रहे हैं। किसानों ने जिस तरह इसके लिए कर्ज लेकर टूयबवेल खुदवाए वे उस हिसाब से उसकी लागत शायद ही निकाल पाएं हो। लागत के मुकाबले वे उतना उत्पादन नहीं कर पाए या फिर थोड़ा बहुत सहकर उस जगह पर खेती करना ही छोड़ दिया। इस तरह से खेती का रकबा भी घटने लगा है। कोढ़ पर खाज की स्थिति तब आने जा रही है जब सरकार ने यह घोषणा की है कि अब छोटे किसानों (5 एकड़ से कम) को मुफ्त में बिजली दी जाएगी। हालांकि सब किसान जानते हैं कि बिजली जिस हिसाब से गांवों तक पहुंचती है उससे पंप तो क्या एक लट्टïू भी ठीक तरह से जल नहीं पाता। महीनों लग जाते हैं एक खराब ट्रांसफार्मर सुधारने में वह भी बिजली विभाग के करम-चारियों की पूजा-पाठ, और दान-दक्षिणा के बाद। सरकार का दावा है कि बिजली की कोई कमी नहीं हैं प्रदेश में, पर हम देखते हैं कि उस अनुपात में बिजली की बर्बादी भी हो रही है। घर-घर में खुद रहे नलकूप। पानी की बर्बादी के साथ ही बिजली की बर्बादी भी करते हैं। किसानों को मुफ्त बिजली मिलेगी तो न जाने कितने ट्यबवेल और खुद जाएंगे, भले ही इसके लिए इस छोटे किसान को कर्ज लेना पड़े। इनमें से कुछ हो सकता है महाजनों से कर्ज लें और जो कुछ आंध्र प्रदेश में और पंजाब में देखने को मिला क्या यह किसी के लिए सबक नहीं बना है। किस कीमत पर किसान धान उपजाने लगा है इसकी ओर भी हमारे नीति तय करनेवालों को देखना होगा। आहिस्ता-आहिस्ता पट रहे डबरी-तालाब कुएं। आदिवासी बहुल वनांचल कोरिया जिले की एक रिपोर्ट जो सब कुछ बता देती है कि अफरशााही और अदूरदर्शिता का नाता-गोता कितना रहता है। एक सुई के लिए कार से सफर तय किया जाता है। भई जब बांध बनाने का फैसला लिया गया तो रतेली जमीन का ध्यान क्यों नहीं दिया गया। फिर अब तो रेत वाली जगह क्या दरिया में बड़ी-बड़ी इमारतें बन रही हैं। अविभाजित मप्र के समय बांध बनाया गया उस समय के इंजीनियरों की अक्ल (या घूसखोरी?) के कारण ऐसा फूटा कि अब फूटहा नाम से मशहूर होकर जाने -पहचाने लगा है। गांव की जमीन से जुड़े पत्रकार चंद्रकांत पारगीर की एक रिपोर्ट और नासा की एक रिपोर्ट आप पढ़े। और सोचें आप क्या कर सकते हैं आने वाली पीढ़ी को एक गिलास ही सही, साफ पानी की विरासत देने के लिए।
कोरिया जिले के मनेन्द्रगढ़ तहसील अंतर्गत ग्राम बरबसपुर में महाराजपुर जलाशय योजना का बांध जो बनने के कुछ ही साल के बाद यह फूट गया इससे किसानों की 366 हेक्टेयर भूमि ंिसंचित होने से रह गयी। शासन ने तब के तत्कालीन जल संसाधन विभाग के सचिव सी के खेतान ने उक्त बांध को अत्याधिक रेतीला होने के कारण विलोपीत कर दिया है। ग्राम भर्रीडीह में ग्रामीण इसे फूटा तालाब के नाम से जानते है। ग्रामीण इसके फूट जाने और बाद में शासन द्वारा इस पर कोई कार्यवाही नहीं करने से नाराज है। बांध अब पूरी तरह झाडिय़ों से पटा पड़ा है। यहां के ग्रामीण अब इसका उपयोग बकरी गाय चराने के लिए करते है। दरअसल, ग्राम बसेर की तरफ से आने वाली कोईलापानी नामक नदी पर तब के अविभाजित मध्यप्रदेश के समय सन्ï 1976 में महाराजपुर लधु सिंचाई योजना की श्ुारूआत की गई जिसके तहत 9.98 लाख की लागत का बांध का निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ। बांध के बन जाने के बाद 1980 में बांध फूट गया। बांध के बनने से ग्राम हर्रा, दर्रीटोला,महाराजपुर और नागपुर के किसानों की 366 हेक्टेयर भूमि को सिंचाई का लाभ मिलने लगा था। इसका निर्माण के समय चौकीदार रहे 75 वर्षीय रामदास ने बताया कि वेस्टवेयर के गलत स्थान पर बन जाने से यह बांध टूट गया। उन्होने उक्त बांध में 12 वर्ष चौकीदारी की परन्तु उन्हें आज तक कोई वेतन नहीं मिला। उन्होंनेें बताया कि बरसात के मौसम में यहे बांध फूटा था, उस वक्त कोई जनहानि नहीं हुई थी। बालसाय नामक ग्रामीण का मकान बह बह गया था। बाद में इसकी मरम्मत का कार्य सनï्ï 1988 तक चला। ग्रामीणों का कहना है कि किसी प्रकार यह बांध शुरू हो जाता तो वे इससे खेती कर अपना विकास कर सकते थे।
नासा की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के जल भण्डार तेजी से सिकुड़ रहे हैं। शोध यह है कि पिछले एक दशक के दौरान समूचे उत्तर भारत में हर साल औसतन भूजल स्तर एक फुट नीचे गिरा है। इस शोध का चिंताजनक पहलू यह तो है कि भूजल स्तर गिरा है लेकिन उससे अधिक चिंताजनक पहलू यह है कि इसके लिए सामान्य मानवीय गतिविधियों को जिम्मेदार बताया जा रहा है। 13 अगस्त 2009 को प्रकाशित नेचर पत्रिका के एक रिपोर्ट के मुताबिक उपग्रह आधारित चित्रों से पता चला है कि भारत के जल स्रोत और भण्डार तेजी से सिकुड़ रहे हैं और जल्दी ही किसानों को परम्परागत सिंचाई के तरीके छोड़कर पानी की खपत कम रखने वाले आधुनिक तरीके और फ़सलें अपनानी होंगी। भारत में अस्थाई उपलब्धता भविष्य में खेती पर गम्भीर असर डालने वाली है और एक भीषण जल संकट की आहट सुनाई देने लगी है, परम्परागत फ़सलों और खेती के तरीके पर भी काली छाया मंडराने लगी है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों की उपग्रह तस्वीरें खींची और उसमें स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है कि राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और देश की राजधानी दिल्ली में भूजल स्तर में भारी कमी आई है। ग्रेस और कोलोरेडो विश्वविद्यालय द्वारा संयुक्त रूप से संचालित किये गये एक अन्य शोध में बताया गया है कि उत्तरी भारत, पूर्वी पाकिस्तान और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में भूजल का स्तर 54 क्यूबिक किमी प्रतिवर्ष की दर से कम हो रहा है। शोध रपट आगे कहती है कि इस पूरे इलाके में जिस तरह से पानी का दोहन किया जा रहा है उससे यहां रहनेवाले 11 करोड़ 40 लाख लोगों के जीवन पर संकट गहरा होता जाएगा। ज्ञात हो कि उत्तर भारत में यही वो इलाके हैं जहां औद्योगिक और कृषि क्रांतियों का जन्म हुआ था। पंजाब और हरियाणा तो इस बात के जीते जागते उदाहरण बन गये हैं कि पिछले दौर में हरित क्रांति के नाम पर उन्होने जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया था उसका नतीजा अब उन्हें भुगतना पड़ रहा है। न केवल भूजल स्तर गिरा है बल्कि माटी और हवा भी बुरी तरह से प्रदूषित हुई है। दो दिन पहले ही भारत के पर्यावरण पर रिपोर्ट जारी करते हुए भारत सरकार ने स्वीकार किया है देश में 45 फीसदी जमीन बेकार और बंजर हो चुकी है।इस शोध का चिंताजनक पहलू यह तो है कि भूजल स्तर गिरा है लेकिन उससे अधिक चिंताजनक पहलू यह है कि इसके लिए सामान्य मानवीय गतिविधियों को जिम्मेदार बताया जा रहा है। नासा ने अपने अध्ययन में ग्रेस सेटेलाईट का सहारा लेकर कहा गया है कि इंसानों द्वारा लगातार भूजल दोहन का ही परिणाम है कि इस इलाके में भूजल चिंताजनक स्तर तक गिर गया है। लेकिन शोध औद्योगिक गतिविधियों और उन कृषि तकनीकों पर कोई सवाल नहीं खड़ा करता है जिसके कारण इस इलाके में हरित क्रांति के नाम पर भूजल का भयावह दोहन बढ़ा है। वैज्ञानिक रोडेल कहते हैं-यदि किसान अधिक पानी की खपत वाली फ़सलों, जैसे चावल को छोड़कर अन्य कम पानी की खपत वाली फ़सलों की तरफ़ ध्यान दें तो यह असरकारी हो सकता है। इस बीच खबरें आई हैं कि भारत सरकार एक कानून बनाकर भूजल के अत्यधिक दोहन के खिलाफ़ कार्रवाई करने जा रही है। रोडेल कहते हैं कि हमारे द्वारा किया गया अध्ययन और आँकड़े इस सम्बन्ध में भारत सरकार के लिये मददगार सिद्ध होंगे।

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